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वजह से है।
__ हर जीव की अपनी कर्म-नियति और प्रकृति होती है। मनुष्य एक पर एक कर्म करता चला जाता है। पूर्वकृत कर्मों पर नये कर्मों की परतें चढ़ जाती हैं। जब वे कर्म उदय में आते हैं, तो मनुष्य के सम्पूर्ण अस्तित्व को अपने चक्रव्यूह में घेर लेते हैं। वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। सच में तो हमें अपने मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों पर निरन्तर ध्यान देना चाहिये, ताकि नये कर्मों की पथरीली परतें निर्मित न हों और पूर्वकृत कर्मों को हम भीतर के शिखर पर बैठकर ध्यानपूर्वक देख लें, समझ लें, भोग लें, क्षय कर लें।
मनुष्य एक मंदिर है और जीवन एक तीर्थयात्रा, पर स्वयं को मन की पुनरुक्ति और आपूर्ति का पर्याय बना लिये जाने के कारण ही जीवन का सत्य हर मूल्य से नीचे गिर गया
मनुष्य चाहे कितना भी गलत से गलत काम क्यों न करे, पर एक बार तो उसकी अन्तरात्मा उसे गलत राह पर चलने से अवश्य टोकेगी। मनुष्य देह-भाव और परिस्थितियों से मजबूर होकर अपनी अन्तरात्मा की आवाज को ठुकरा देता है। उस पर ध्यान नहीं देता और गलतियों पर गलतियां दोहराता रहता है, ठोकर पर ठोकर खाता रहता है। यही मनुष्य का अज्ञान है और शायद यही उसकी कर्म-नियति ।
काम चाहे गलत हो या सही, उसे करने वाला मनुष्य स्वयं है, न कि कोई और सत्ता। जब हम अपने किसी श्रेय को परमात्मा पर डालते हैं, तो उसका कारण यह नहीं कि वह
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