Book Title: Antargruha me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 67
________________ काम परमात्मा ने करवाया वरन् इसलिए कि उस सफलता के कारण हममें अहं-भाव न आ जाये कि यह काम मेरे कारण हुआ। मैं ही था जो सफल हो गया। आत्म-अहंकार से बचने के लिए ही परमात्म-कर्तृत्व को स्वीकार किया जाता है। अपनी सफलता को परमात्मा की कृपा मान लिया जाये, तो हमारी हर सफलता, हमारी ओर से परमात्मा को भावभरा अर्ध्य चढ़ाने के समान है। कर्ता-भाव से छुटकारा ही, जीवन में मुक्ति-भाव को जीना है। मरने वाला भी व्यक्ति है और बचने वाला भी। अगर उसके अपने नसीब हैं, तो किसी की लाख कोशिश के बावजूद वह बच जायेगा। परमात्मा संहारक या मारनेवाला नहीं हो सकता। वह तो दयालु और कृपालु है। वह किसी को क्यों मारेगा वह तो अस्तित्व की पुलक है, फूलों की लाली है। झरनों का कलरव और परिंदों का संगीत है। परमात्मा अस्तित्व का हृदय है। वह मारता नहीं, तारता है। कर्मों की रेखा चुक जाने पर ही मनुष्य का संहार होता है। भगवान् भी मनुष्य की कर्म-नियति को मिटा नहीं सकते। इसीलिए कहता हूँ हमें अपने आप पर ध्यान देना चाहिये। अपनी आवाज को सुनना चाहिये । स्वयं में प्रतिध्वनित हो रही हर अनुगूंज पर कान देने चाहिये । आदमी की नियति अथवा प्रकृति कितनी भी बुरी क्यों न हो, अगर हम अपनी अन्तरात्मा की आवाज को नज़र-अन्दाज न करें, उसका अमल करें, तो यह काफी कुछ संभावना है कि हम बदी की राह पर चलने से अपने आपको बचा लेंगे। धरती पर रंग, रूप, शक्ति अथवा वैभव को लेकर Jain परमात्मा/४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90