Book Title: Antargruha me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 39
________________ इन्द्रिय-सुख नहीं, अतीन्द्रिय सुख है। शरीर और मन के संवेगों और उद्वेगों के तिरोहित होने पर ही आत्मिक मार्ग के दरवाजे खुलते हैं। देह-सुख के भूल-भुलावे में ही व्यक्ति स्वयं को भूल बैठा है। भटक रहा है। बोध के अभाव में ऐसा ही होता है। पत्थर पूजा जाता है, पुरुष दुत्कारा जाता है। एक ओर फूल चढ़ाये जाते हैं दूसरी ओर कांटे गड़ाये जाते हैं। सभाओं में अहिंसा और शांति के कपोत उड़ाये जाते हैं, पर मंचों की ओट में शस्त्रास्त्रों के कारखाने चलाये जाते हैं। ज्ञान की बातें महज उपदेश बन जाती हैं और उपदेश मानो औरों को ही देने के लिए होते हैं। अधिकारों के नाम पर न जाने कैसे-कैसे प्रपंच और महाभारत रचे जाते हैं। स्वयं का बोध होने पर ही वास्तविकता के प्रति वफादारी आती है। फिर केवल पुरुष ही नहीं पूजा जाता, पत्थर में भी परमात्मा का रूप देख लिया जाता है। फूलों के बदले में तो फूल दिये ही जाते हैं पर ज्ञानी व्यक्ति तो कांटों के बदले में भी फूल ही लौटाता है। फिर ज्ञान बखानने के लिए नहीं, जीने के लिए होता है। अन्तर-बोध हो जाये, तो अपनों में और औरों में कोई फर्क ही नहीं लगेगा। फिर तो शहरों की भीड़ में भी एकत्व का आनन्द होगा और जंगल की नीरवता में भी शून्य का संगीत सुनाई देगा। मैंने तो धर्म का यही रूप जिया है कि अपने प्रति ईमानदार रहो, अवचेतन के प्रति जागरूक रहो, सबकी सेवा करो, सबसे प्यार करो, सबमें घुलमिल जाओ और हर ठौर परमात्मा का आनन्द लो। आत्मबोध की आवश्यकता इसलिए है ताकि व्यक्ति स्वयं के प्रति भी श्रद्धान्वित हो और औरों की आत्म-अपेक्षाओं Jain आत्म-विस्मृति/२६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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