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हम पशु नहीं हैं, मनुष्य हैं, हमें यह बोध निरन्तर रखना चाहिये । पशु का काम सींग मारना है, मनुष्य का धर्म मारने की भावना से ऊपर उठना है। भला, जब हम अपने को मरवाना नहीं चाहते, तो औरों को मारना क्यों चाहते हैं? अन्ततः जीवों का वध अपना ही वध है। जीवों पर की जाने वाली दया अपने आप पर ही दया करना है। सत्ता की दृष्टि से सब एक हैं, सबका अन्तर-सम्बन्ध है। हमें भी, किसी भी द्वार से गुजरना पड़ सकता है।
आत्मदृष्टि से हमें सबके प्रति प्रेम और आत्मीयता रखनी चाहिये। मनुष्य ही क्यों, पशुओं और पंछी-पखेरू के प्रति भी स्वस्थ दृष्टिकोण इजहार करना चाहिये। फल-फूलपत्ती-प्रकृति के हर अंश में प्रभु के दर्शन करने चाहिये। किसी को ओछा या नीच मानकर उसे छूने और बतियाने से परहेज रखना, न केवल अमानवीय है, वरन अपने ही साथ किया जाने वाला सौतेला व्यवहार है।
जीवन जन्म-जन्मान्तर से चल रहा प्रवाह है। किसी के प्रति ओछापन बरतकर हम अपने आपको ओछा न बनायें। हम अपने कर्म-बन्धन के प्रति सजग हों। कर्म वास्तव में हम पर ही लौटकर आने वाली हमारी ही प्रतिध्वनि है। यह हमारे ही अस्तित्व की प्रतिच्छाया है।
कर्म मनुष्य का कारनामा है।
कर्म सुशील हों, यह आवश्यक है। आत्म-शुद्धि और आत्म-मुक्ति के लिए तो हर तरह के कर्म-बन्धन से छुटकारा हो जाना चाहिये। किसी का सभ्य संस्कारित घर में जन्म लेना, वहीं किसी का गरीब घर में पैदा होना कर्म-परिणामों की ही
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