Book Title: Antargruha me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 58
________________ हम अपना हमें अपना आत्म-बोध कायम रखते हुए परम प्रभु का सदा स्मरण रखना चाहिये। परमात्मा की याद हमें गलत मार्ग पर जाने से रोकेगी, सही मार्ग पर चलते रहने की प्रेरणा देगी। सम्यक् मार्ग पर चलने वाले लोग संसार-सागर पर तैरने वाले दीप हैं। धरती के सच्चे देवता तो वही हैं, जो जीवन में दिव्यताओं को आत्मसात् किये रहते हैं। देवता और राक्षस-दोनों तरह की प्रवृत्ति के लोगों का धरती पर बसेरा है। हमारे बीच ही राक्षस जीते हैं और हमारे बीच ही देवता। जब कोई हर तरह के लाज-शर्म-मर्यादा को त्यागकर हिंसा और बलात्कार पर उतर आता है, तो लोग कहते हैं-पता नहीं, यह इंसान है या जानवर ! आतंक और क्रूरता पर उतारू हुए लोगों के लिए ही कहा जाता है-यह शैतान है, राक्षस । जबकि शान्त, भद्र और बेदाग जीवन देखकर ही हम किसी के प्रति कहा करते हैं-यह आदमी नहीं, देवता है। देवता पूजा जाता है। उसकी संगति तो दूर, दर्शन भी सौभाग्य-वर्धक है। देव-पुरुष हमारे अन्तरहृदय में दिव्यता की एक किरण उतार जाते हैं। देवता उन्हें मानो जिनके पास बैठने मात्र से मन की कलुषितता तिरोहित होती है, मन को शान्ति और सुकून मिलता है। मनुष्य देवता हो सकता है। मनुष्य अपने में स्वर्ग को जी सकता है। वह शीलवान्, समाधिवान्, प्रज्ञावान् हो सकता है। वह वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह हो सकता है। स्थितप्रज्ञ, अनासक्त और जीवन-मुक्त हो सकता है। प्रेम, सेवा और करुणा से ओतप्रोत हो सकता है। जातपात के भेदभाव से मुक्त होकर सामाजिक समता को जी सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use अन्तर-गुहा में प्रवेश/४१y.org

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