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प्रदान करने की प्रक्रिया है। सुकृत मार्ग पर बढ़ते हुए संकल्प, विचार और व्यवहार जीवन के लिए अमृत हैं। विकृत मार्ग पर जाता हुआ जीवन हमारे लिए विषपान है।
मन के विकारों और संवेगों की परितृप्ति के लिए तो अब तक ढेर सारे प्रयास हो गए। मन की शान्ति और बुद्धि की समग्रता के लिए हमें सजग होना चाहिये। मन के ऊपर उठकर, अतिमनस् जगत् में जी सकें, तो हम उस जगत् में जी सकते हैं जो निष्कषाय और निर्विकार है। आनन्द और अहोभाव से परिपूर्ण है। हम प्रतिदिन स्नान करें, साफ-सुथरे कपड़े पहनें। स्वास्थ्य-लाभ के पूरे इंतजाम होने चाहिये । हवा-पानी-भोजन की स्वच्छता-सात्विकता बनी रहनी चाहिये। कोई भी काम करते समय हम इतना जरूर देख लें कि वह अमानवीय, तामसिक अथवा अहितकर न हो। विचारों में ऊंचाई हो और जीवन में सादगी। कम बोलें, धीरे वोलें, मधुर बोलें। मन को क्रोध की बजाय मैत्री का माधुर्य दें। अहंकार की बजाय विनम्रता का पाठ पढ़ायें। प्रपंच की बजाय पारिवारिकता के भाव को विस्तार दें। संग्रह और लोभ के स्थान पर सेवा और दया की भावना रखें।
हम अपने आत्मिक सुख और आन्तरिक पवित्रता के लिए स्वयं तो प्रयास करें ही, परम पिता परमात्मा से भी नैतिक और आत्मिक बल प्रदान करने की प्रार्थना करें। परमात्मा सांसारिक और अपवित्र भावों से मुक्त है। वह सद्गुणों का सागर है। परमात्मा के पास देने के लिए है पवित्रता, दिव्यता, शान्ति, शक्ति, सम्बोधि। वह हमें ऐसी शान्ति, प्रेम और ज्ञान प्रदान करता है, जिसका सम्बन्ध हमारे अस्तित्व-सुख और आध्यात्मिक विकास से है।
Jan स्वर्ग-नरक/४०
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