Book Title: Antargruha me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 41
________________ ब्रह्मचर्याश्रम पहलवानी के लिए नहीं, वरन् निर्मल चित्त से सेवा, विनय और ज्ञानार्जन के लिए है। गृहस्थाश्रम भोगाश्रम नहीं, बल्कि अर्थ और काम द्वारा सांसारिक धर्मों को निभाते हुए, एक से अनेक में बढ़ते हुए जनसेवा तथा समाज-सेवा करना है। वानप्रस्थाश्रम वन की ओर पलायन नहीं, वरन् पारिवारिक सीमा से बाहर आकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को आत्मसात् करना है। संन्यास मात्र नाम-वेश बदलना नहीं है। यह तो सहिष्णुता, पवित्रता और आत्म-मुक्ति की अवस्था को प्राप्त करना है। हम स्वयं को पाखंड के बोझ से मुक्त करें और बोधपूर्वक स्व-पर सुखाय जीवन-मूल्यों पर अपने कदम बढ़ाएं। गृहस्थ और संन्यास की दूरियां मिटाते हुए हर व्यक्ति गृहस्थ-संत होने का प्रयास करे, जल में रहकर भी कमलवत् निर्लिप्त । Jain आत्म-विस्मृति/२८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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