Book Title: Antargruha me Pravesh
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 10
________________ लोग धर्म के नाम पर लड़ते-झगड़ते हैं, आपस में बंट जाते हैं खून-खराबा करते हैं, इबादतगाहों में आग लगा देते हैं। साम्प्रदायिक सौहार्द की बात हर मजहब करता है, पर धर्म को लेकर सदियों से दंगे-फसाद होते रहे हैं। अब किसी व्यक्ति या समूह की परम्परा अथवा धर्म, सम्प्रदाय का रूप ले चुका है। धर्म की विराटता खो गई है। सागर छोटे-छोटे डबरों में उलझ गया है। धर्म को अब निजी हो जाना चाहिये। तभी धर्म मनुष्य का अपना हो सकता है, वह खुद सुख से जी सकता है और औरों को सुख से जीने दे सकता है। परम्परा का बाना पहन चुके धर्म के नाम पर हम आपस में एक होना चाहेंगे, मानवता के मंच पर एकता के दीप जलाना चाहेंगे, तो यह संभव नहीं लगता। हिन्दुस्तान में एक हजार वर्षों से हिन्दु भी रहते आये हैं और मुसलमान भी। कोशिशों में कमी नहीं रही, पर दोनों के दिल कभी एक नहीं हो सके । नतीजतन, धर्मानुरागी देश को धर्म-निरपेक्षता का संविधान बनाना पड़ा। व्यक्ति-व्यक्ति की शुद्धि होनी चाहिये। व्यक्ति ही हर समाज और राष्ट्र की इकाई है। सामूहिक प्रयास बहुत हो गए, अब नये प्रयोग से गुजरें-हर व्यक्ति की शुद्धि और मुक्ति पर ध्यान दें। मात्र देश की आजादी ही काफी नहीं है, जब तक जनमानस परतन्त्र है। विभिन्न सम्प्रदायों ने अपने-अपने अनुयाइयों को धर्म के नाम पर अलग-अलग तरह की बेड़ियां पहना दी हैं। हम बेड़ियों को दरकिनार करें और अपने जीवन के परम सत्य को खुद शोधे। नये नजरिये से जीवन-जगत् को निहारें, सुधारें। सत्य से बड़ा न कोई धर्म है और न ही धर्म का कोई Jain Education International For Personal & Private use o अन्तर-गुहा में प्रवेश/३.५०ng For Personal & Private Use One

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