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अनेकान्त
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[बर्ष ६
इस ग्रन्थके तीन विभाग हैं जिन्हें 'काण्ड' संज्ञा दी गई है। प्रथम काण्डको कुछ हस्तलिखित तथा मुद्रित प्रतियोंमें 'नयकाण्ड' बतलाया है-लिखा है "नयकण्डं सम्मत्तं"
और यह ठीक ही है; क्योंकि सारा काण्ड नयके ही विषयको लिये हुए है और उसमें द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक दो नयोंको मूलाधार बनाकर और यह बतलाकर कि 'तीर्थङ्कर वचनोंके सामान्य और विशेषरूप प्रस्तारके मूलप्रतिपादक ये ही दो नय हैं-शेष सब नय इन्हींके विकल्प हैं', उन्हींके भेद-प्रभेदों तथा विषयका अच्छा सुन्दर विवेचन और संसूचन किया गया है। दूसरे काण्डको उन प्रतियोंमें 'जीवकाण्ड' बतलाया है-लिखा है “जीवकंडयं सम्मत्तं"। पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीकी रायमें यह नामकरण ठीक नहीं है, इसके स्थानपर । 'ज्ञानकाण्ड' या 'उपयोगकाण्ड' नाम होना चाहिये; क्योंकि इस काण्डमें, उनके कथनानुसार जीवतत्त्वकी चर्चा ही नहीं है-पूर्ण तथा मुख्य चर्चा ज्ञानकी है । यह ठीक है कि इस काण्डमें ज्ञानकी चर्चा एक प्रकारसे मुख्य है परन्तु वह दर्शनकी चर्चाको भी साथ लिये हुए हैउसीसे चर्चाका प्रारम्भ है-और ज्ञान-दर्शन दोनों जीवद्रव्यकी पर्याय है, जीवद्रव्यसे भिन्न उनकी कहीं कोई सत्ता नहीं, और इसलिये उनकी चर्चाको जीवद्रव्यकी ही चर्चा कहा जासकता है। फिर भी ऐसा नहीं है कि इसमें प्रकटरूपसे जीवतत्त्वकी कोई चर्चा ही न हो-दूसरी गाथामें ‘दव्वढिओ वि होऊण दंसणे पज्जवढिओ होई' इत्यादिरूपसे जीवद्रव्यका कथन किया गया है, जिसे पं. सुखलालजी आदिने भी अपने अनुवादमें "आत्मा दर्शन वखते” इत्यादिरूपसे स्वीकार किया है। अनेक गाथाओंमें कथन-सम्बन्धको लिये हुए सर्वज्ञ, केवली, अर्हन्त तथा जिन जैसे अर्थपदोंका भी प्रयोग है जो जीवके ही विशेष हैं। और अन्तकी 'जीवो अणाइणिहणो'से प्रारम्भ होकर 'अण्णे वि य जीवपज्जाया' पर समाप्त होनेवाली सात गाथाओंमें तो जीवका स्पष्ट ही नामोल्लेखपूर्वक कथन है-वही चचोका विषय बना हुआ है। ऐसी स्थिति में यह कहना समुचित प्रतीत नहीं होता कि 'इस काण्डमें जीवतत्त्वकी चर्चा ही नहीं है' और न 'जीवकाण्ड' इस नामकरणको सर्वथा अनुचित अथवा अयथार्थ ही कहा जा सकता है। कितने ही ग्रन्थोंमें ऐसी परिपाटी देखनेमें आती है कि पर्व तथा अधिकारादिके अन्तमें जो विषय चर्चित होता है उसीपरसे उस पर्वादिकका नामकरण किया जाता है२, इस दृष्टिसे भी काण्डके अन्तमें चर्चित जीवद्रव्यकी चर्चाके कारण उसे 'जीवकाण्ड' कहना अनुचित नहीं कहा जा सकता । अब रही तीसरे काण्डकी बात, उसे कोई नाम दिया हुआ नहीं मिलता। जिस किसीने दो काण्डोंका नामकरण किया है उसने तीसरे काण्डका भी नामकरण जरूर किया होगा. सम्भव है खोज करते हुए किसी प्राचीन प्रतिपरसे वह उपलब्ध हो जाए। डा० पी० एल० वैद्य एम० ए०ने, न्यायावतारकी प्रस्तावना (Introduction)में, इस काण्डका नाम असन्दिग्धरूपसे 'अनेकान्तवादकाण्ड' प्रकट किया है। मालूम नहीं यह नाम उन्हें किस प्रतिपरसे उपलब्ध हुआ है। काण्डके अन्तमें चर्चित विषयादिकको दृष्टिसे यह नाम भी ठोक हो सकता है । यह काण्ड अनेकान्तदृष्टिको लेकर अधिकांशमें सामान्य-विशेषरूपसे अर्थकी प्ररूपणा और विवेचनाको लिये हुए है. और इसलिये इसका नाम 'सामान्य-विशेषकाण्ड' अथवा द्रव्य-पर्याय-काण्ड' जैसा भी कोई हो सकता है। पं. सुखलालजी और पं० बेचरदास जीने इसे 'ज्ञेय-काण्ड' सूचित किया है, जो पूर्व-काण्डको ज्ञानकाण्ड' नाम देने और दोनों काण्डोंके नामोंमें श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत प्रवचनसारके ज्ञान-ज्ञेयाधिकारनामोंके साथ समानता लानेकी दृष्टिसे सम्बद्ध जान पड़ता है।
१ तित्थयर-वयण-संगह-विसेस-पत्थारमूलवागरणी । दबहिनो य पजवणो य सेसा वियप्पासिं ॥३॥ Jain Ethication intomation२ जैसे जिनसेनकृत हरिवंशपुराण के तृतीय सर्गका नाम श्रोणिकप्रश्नवर्णन', जब कि प्रश्नके पूर्वमें वीरके
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