Book Title: Anekant 1948 11 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 22
________________ ४२६ ] ___ अनेकान्त [वर्ष आचाराङ्ग-नियुक्तिमें वद्धमानको छोड़कर शेष २३ तीर्थङ्करोंके तपःकर्मको निरुपसर्ग वर्णित किया है। इससे भी प्रस्तुत कल्याणमन्दिर दिगम्बर कृति होनी चाहिये। प्रमुख श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने ग्रन्थकी गुजराती प्रस्तावनामें विविधतीर्थकल्पको छोड़कर शेष पाँच प्रबन्धोंका सिद्धसेन-विषयक सार बहुपरिश्रमके साथ दिया है और उसमें कितनी परस्पर विरोधी तथा मौलिक मतभेदकी बातोंका भी उल्लेख किया है और साथ ही यह निष्कर्ष निकाला है कि 'सिद्धसेन दिवाकरका नाम मूलमें कुमुदचन्द्र नहीं था, होता तो दिवाकर-विशेषणकी तरह यह श्रुतिप्रिय नाम भी किसी-न-किसी प्राचीन ग्रन्थमें सिद्धसेनकी निश्चित कृति अथवा उसके उद्धत वाक्योंके साथ जरूर उल्लेखित मिलता-प्रभावकचरितसे पहलेके किसी भी ग्रन्थमें इसका उल्लेख नहीं है । और यह कि कल्याणमन्दिरको सिद्धसेनकी कृति सिद्ध करनेके लिये कोई निश्चित प्रमाण नहीं है-वह सन्देहास्पद है।' ऐसी हालतमें कल्याणमन्दिरकी बातको यहाँ छोड़ ही दिया जाता है। प्रकृत-विषयके निर्णयमें वह कोई विशेष साधक-बाधक भी नहीं है। अब रही द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, सन्मतिसूत्र और न्यायावतारकी बात । न्यायावतार एक ३२ श्लोकोंका प्रमाण-नय-विषयक लघुग्रन्थ है, जिसके आदि-अन्तमें कोई मङ्गलाचरण तथा प्रशस्ति नहीं है, जो आमतौरपर श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेनदिवाकरकी कृति माना जाता है और जिसपर श्वे० सिद्धर्षि (सं० ६६२)की विवृति और उस विवृतिपर देवभद्रकी टिप्पणी उपलब्ध है और ये दोनों टीकाएँ डा० पी० एल० वैद्यके द्वारा सम्पादित होकर सन् १६२८में प्रकाशित हो चुकी हैं। सन्मतिसूत्रका परिचय ऊपर दिया ही जा चुका है। उसपर अभयदेवसूरिकी २५ हजार श्लोक-परिमाण जो संस्कृतटीका है वह उक्त दोनों विद्वानोंके द्वारा सम्पादित होकर सं० १९८७में प्रकाशित हो चुकी है। द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका ३२ ३२ पद्योंकी ३२ कृतियाँ बतलाई जाती हैं, जिनमेंसे २१ उपलब्ध हैं। उपलब्ध द्वात्रिंशिकाएँ भावनगरकी जैनधर्मप्रसारक सभाकी तरफसे विक्रम संवत् १९६५में प्रकाशित हो चुकी हैं। ये जिस क्रमसे प्रकाशित हुई हैं उसी क्रमसे निर्मित हुई हों ऐसा उन्हें देखनेसे मालूम नहीं होता-वे बादको किसी लेखक अथवा पाठक-द्वारा उस क्रमसे संग्रह की अथवा कराई गई जान पड़ती हैं। इस बातको पं० सुखलालजी आदिने भी प्रस्तावनामें व्यक्त किया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि 'ये सभी द्वात्रिंशिकाएँ सिद्धसेनने जैनदीक्षा स्वीकार करनेके पीछे ही रची हों ऐसा नहीं कहा जा सकता, इनमेंसे कितनी ही द्वात्रिंशिकाएँ (बत्तीसियाँ) उनके पूर्वाश्रममें भी रची हुई हो सकती हैं। और यह ठीक है, परन्तु ये सभी द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेनकी रची हुई हों ऐसा भी नहीं कहा जा सकता; चुनाँचे २१वीं द्वात्रिंशिकाके विषयमें पण्डित सुखलालजी आदिने प्रस्तावनामें यह स्पष्ट स्वीकार भी किया है कि उसकी भाषारचना और वर्णित वस्तुकी दूसरी बत्तीसियोंके साथ तुलना करनेपर ऐसा मालूम होता है कि वह बत्तीसी किसी जुदे ही सिद्धसेनकी कृति है और चाहे जिस कारणसे दिवाकर (सिद्धसेन)की मानी जानेवाली कृतियोंमें दाखिल होकर दिवाकरके नामपर चढ़ गई है। इसे महावीरद्वात्रिंशिका लिखा है-महावीर नामका इसमें उल्लेख भी है; जब कि और किसी. १ "सव्वेसि तवो कम्मं निरुवसग्गं तु वरिणयं जिणाण । नवरं तु वड्डमाणस्स सोवसग्गं मुणेयव्वं ॥२७६॥" २ यह प्रस्तावना ग्रन्थके गुजराती अनुवाद-भावार्थके साथ सन् १६३२में प्रकाशित हुई है और ग्रन्थका यह गुजराती संस्करण बादको अंग्रेजीमें अनुवादित होकर 'सन्मतितर्क'के नामसे सन १६३हमें प्रकाशित हुआ है। ३ यह द्वात्रिंशिका अलग ही है ऐसा ताडपत्रीय प्रतिसे भी जाना जाता है, जिसमें २० ही द्वात्रिंशिकाएँ अङ्कित हैं और उनके अन्तमें "ग्रन्थान८३० मंगलमस्तु" लिखा है, जो ग्रन्थकी समाप्तिके साथ उसकी Jain Education International Parent s Use Only www.jainelibrary.org

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