Book Title: Anekant 1948 11 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ किरण ११] सन्मति-सिद्धसेनाङ्क [४२५ विधि, जिसका उल्लेख उपादित्याचार्य (विक्रम हवीं शताब्दी)के 'कल्याणकारक' वैद्यक ग्रन्थ (२०-८५)में पाया जाता है। और ३ नीतिसारपुराण, जिसका उल्लेख केशवसेनसूरि (वि० सं० १६८८) कृत कर्णामृतपुराणके निम्न पद्योंमें पाया जाता है और जिनमें उसकी श्लोकसंख्या भी १५६३०० दी हुई है सिद्धोक्त-नीतिसारादिपुराणोद्भूत-सन्मतिं । विधास्यामि प्रसन्नाथ ग्रन्थं सन्दर्भगर्भितम् ॥१९॥ खंखाग्निरसवाणेन्दु (१५६३००) श्लोकसंख्या प्रसूत्रिता । नीतिसारपुराणस्य सिद्धसेनादिसूरिभिः ॥२०॥ उपलब्ध न होनेके कारण ये तीनों ग्रन्थ विचारों में कोई सहायक नहीं हो सकते । इन आठ प्रन्थोंके अलावा चार ग्रन्थ और हैं-१ द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २ प्रस्तुत सन्मतिसूत्र, ३ न्यायावतार और ४ कल्याणमन्दिर । 'कल्याणमन्दिर' नामका स्तोत्र ऐसा है जिसे श्वेताम्बर सम्प्रदायमें सिद्धसेनदिवाकरकी कृति समझा और माना जाता है; जबकि दिगम्बर परम्परामें वह स्तोत्रके अन्तिम पद्यमें सूचित किये हुए 'कुमुदचन्द्र' नामके अनुसार कुमदचन्दाचार्यकी कृति माना जाता है । इस विषयमें श्वेताम्बर-सम्प्रदायका यह कहना है कि सिद्धसेनका नाम दीक्षाके समय कुमुदचन्द्र' रक्खा गया था, आचार्यपदके समय उनका पुराना नाम ही उन्हें दे दिया गया या, ऐसा प्रभाचन्द्रसूरिके प्रभावकचरित (सं० १३३४)से जाना जता है और इसलिये कल्याणमन्दिरमें प्रयुक्त हुआ कुमुदचन्द्र' नाम सिद्धसेनका ही नामान्तर है।' दिगम्बर समाज इसे पीछेकी कल्पना और एक दिगम्बर कृतिको हथियानेकी योजनामात्र प्रभावकचरितसे पहले सिद्धसेन-विषयक जो दो प्रबन्ध लिखे गये हैं उनमें कुमुदचन्द्र नामका कोई उल्लेख नहीं है-पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने अपनी प्रस्तावनामें भी इस बातको व्यक्त किया है। बादके बने हुए मेरुतुङ्गाचार्यके प्रबन्धचिन्तामणि (सं० १३६१)में और जिनप्रभसूरिके विविधतीर्थकल्प (सं० १३८६)में भी उसे अपनाया नहीं गया है। राजशेखरके प्रबन्धकोश अपरनाम चतुर्विशतिप्रबन्ध (सं० १४०५)में कुमुदचन्द्र नामको अपनाया जरूर गया है परन्तु प्रभावकचरितके विरुद्ध कल्याणमन्दिरस्तोत्रको 'पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका'के रूपमें व्यक्त किया है और साथ ही यह भी लिखा है कि वीरकी द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका स्तुतिसे जब कोई चमत्कार देखनेमें नहीं आया तब यह पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका रची गई है, जिसके ११वें से नहीं किन्तु प्रथम पद्यसे ही चमत्कार प्रारम्भ हो गया । ऐसी स्थितिमें पाश्वनाथद्वात्रिंशकाके रूपमें जो कल्याणमन्दिरस्तोत्र रचा गया वह ३२ पद्योंका कोई दूसरा ही होना चाहिये, न कि वर्तमान कल्याणमन्दिरस्तोत्र, जिसको रचना ४४ पद्योंम हुई है, और इससे दोनों कुमुदचन्द्र भी भिन्न होने चाहियें । इसके सिवाय, वर्तमान कल्याणमन्दिरस्तोत्रमें 'प्राग्भारसंभृतनभांसि रजांसि गेषात्' इत्यादि तीन पद्य ऐसे हैं जो पार्श्वनाथको दैत्यकृत उपसगसे युक्त प्रकट करते हैं, जो दिगम्बर मान्यताके अनुकूल और श्वेताम्बर मान्यताके प्रतिकूल हैं, क्योंकि श्वेताम्बरीय * जिसपरसे जैनग्रन्थावलीमें लिया गया है; क्योंकि इसके साथमें जिस टीकाका उल्लेख है उसे 'गुणरत्न' की लिखा है और हरिभद्रके षड्दर्शनसमुच्चयपर भी गुणरत्नकी टीका है। १"शालाक्यं पूज्यपाद-प्रकटितमधिकं शल्यतंत्र चप त्रस्वामि-प्रोक्त विषोग्रग्रहशमनविधिः सिद्धसेनैःप्रसिद्धः" २ "इत्यादिश्रीवीरद्वात्रिंशद्द्वात्रिंशिका कृता । परं तस्मात्तादृशं चमत्कारमनालोक्य पश्चात् श्रीपार्श्वनाथद्वात्रिंशिकामभिकत्तु कल्याणमन्दिरस्तवं चक्रे प्रथमश्लोके एव प्रासादस्थितात् शिखिशिखामादिव . Jain Education International For Personal www.jainelibrary.org Private Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88