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किरण १२ ]
धर्म और वर्तमान परिस्थितियाँ
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बढ़ानेवाली पिपासाका विरोध और साधनोंके केन्द्रीयकरणका विरोध ये मार्क्स के सिद्धान्त भी संयम और आत्मनियन्त्रणके विना सफल नहीं हो सकते ।
धर्म और गांधी- विचारधारा
गाँधी विचारधाराने, जोकि जैन आर्थिक विचारधाराका अंश है, समाजके विकास में बड़ा योग दिया है । महात्माजीने मानवकी भौतिक उन्नतिकी अपेक्षा आध्यात्मिक उन्नति पर अधिक जोर दिया है। उन्होंने जीवनका ध्येय केवल इह लौकिक विकास ही नहीं माना, किन्तु सत्य, अहिंसा और ईश्वरके विश्वास द्वारा आत्मस्वरूपमें प्रतिष्ठित हो जाना ही जीवनका चरम लक्ष्य माना है ।
मानवी आर्थिक समस्याको सुलझानेके लिये, जो कि आजकी एक आवश्यक चीज है, उन्होंने सत्य और अहिंसाके सहारे मशीनयुगको समाप्त कर आत्मनिर्भर होनेका प्रतिपादन किया है । 'सादाजीवन और उच्चविचार' यह एक ऐसा सिद्धान्त है, जिसके प्रयोगद्वारा सारी समस्याएँ सुलझाई जा सकती हैं। सादगी से रहनेपर व्यक्तिके सामने आवश्यकताएँ कम रहेंगी, जिससे समाजकी छीना-झपटी दूर हो जायगी ।
र्थिक समस्या और अपना दृष्टिकोण
आजके युगमें शारीरिक आवश्यकताकी पूर्ति में एकमात्र सहायक अर्थ है । इसकी प्राप्तिके लिये धार्मिक नियमोंकी आवश्यकता है । अतः वर्तमान में प्रचलित सभी आर्थिक विचारधाराओंका समन्वय कर कतिपय नियम नीचे दिये जाते हैं, जो कि जैनधर्म-सम्मत हैं। और जिनके प्रयोगसे मानव समाज अपना कल्याण कर सकता है—
१ – समाजका नया ढाँचा ऐसा तैयार किया जाय जिसमें किसीको भूखों मरनेकी नौबत न आवे और न कोई धनका एकत्रीकरण कर सके। शोषण, जो कि मानवसमाजके लिये अभिशाप है, तत्काल बन्द किया जाय ।
२ - श्रन्यायद्वारा धानार्जनका निषेध किया जाय - जुआ खेलकर धन कमाना, सट्टा-लॉटरी द्वारा धनार्जन करना; चोरी, ठगी, घूस, घूर्त्तता और चोरबाजारी - द्वारा धनार्जन करना; बिना श्रम किये केवल धनके बलसे धन कमाना एवं दलाली करना आदि धन कमानेके साधनों का निषेध किया जाय ।
३ - व्यक्तिका आध्यात्मिक विकास इतना किया जाय, जिससे विश्वप्रेमकी जागृति हो और सभी समाज के सदस्य शक्ति अनुसार कार्य कर आवश्यकतानुसार धन प्राप्त करें।
४ – समाजमें आर्थिक समत्व स्थापित करने लिये संयम और आत्मनियन्त्रणपर अधिक जोर दिया जाय; क्योंकि इसके बिना धनराशिका समान वितरण हो जानेपर भी चालाक और व्यवहार कुशल व्यक्ति अपनी धूर्त्तता और चतुराईसे पूँजीका एकत्रीकरण करते ही रहेंगे। कारण, संसार में पदार्थ थोड़े हैं, तृष्णा प्रत्येक व्यक्तिमें अनन्त हैं, फिर छीना-झपटी कैसे दूर हो सकेगी ? संयम ही एक ऐसा है, जिससे समाजमें सुख और शान्ति देनेवाले आर्थिक प्रलोभनोंकी त्यागवृत्तिका उदय होगा। सच्ची शान्ति त्यागमें है, भोगमें नहीं। भले ही भोगोंको जीवोंकी स्वाभाविक प्रवृत्ति कहकर उनकी अनिवार्यता बतलाई जाती रहे; परन्तु इस भोगवृत्तिसे अन्तमें जी ऊब जाता है। विचारशील व्यक्ति इसके खोखलेपनको समझ जाता है। यदि यह बात न होती तो आज यूरोपसे भौतिक ऐश्वर्य के कारण घबड़ाकर जो धर्मकी शरण में आने की आवाज आ रही है, सुनाई नहीं पड़ती।
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