________________
किरण १२ ]
ब्रह्मश्रुतसागरका समय और साहित्य
[४७५
हुए थे, उनमें प्रथम पुत्र कर्मसिंह, जिसका शरीर भूरिरत्नगुणोंसे विभूषित था और दूसरा पुत्र कुलभूषण काल था, जो शत्रुकुलके लिये कालस्वरूप था, तीसरा पुत्र पुण्यशाली श्रीघोषर, जो सघन पापरूपी गिरीन्द्र के लिये वज्रके समान था और चौथा गङ्गाजलके समान निर्मल मनवाला गङ्ग । इन चार पुत्रोंके बाद इनकी एक बहिन भी उत्पन्न हुई थी जो ऐसी जान पड़ती थी कि जिनवरके मुखसे निकली हुई सरस्वती हो अथवा दृढ़सम्यक्त्ववाली रेवती हो, शीलवती सीता हो और गुणरत्नराशि राजुल हो' । श्रुतसागरजीने स्वयं संघसहित उसके साथ गजपन्थ और तुङ्गीगिर आदिकी यात्रा की थी और वहाँ उसने नित्य जिन पूजनकी, तप किया और संघको दान दिया था । जैसा कि उक्त प्रशस्तिके निम्न पद्योंसे स्पष्ट है:
"श्रीभानुभूपति-भुजासिजलप्रवाह-निर्मग्नशत्रुकुलजातततप्रभावः । सद्ध द्ध्यहुँबृहकुले बृहतीलदुर्गे श्रीभोजराजइति मंत्रिवरो बभूव ॥४४॥" भायोस्य सा विनयदेव्यभिधासुधोपसोगारवाककमलकांतमुखी सखीव । लक्ष्म्याः प्रभोर्जिनवरस्य पदाब्जभृङ्गी साध्वीपतिव्रतगुणामणिवन्महाा ॥४५॥ सा सूत भूरिगुणारत्नविभूषितांगं श्रीकर्मसिंहमितिपुत्रमनूकरत्नं । कालं च शत्रुकुलकालमनूनपुण्यं श्रीघोषरं घनतराधगिरीन्द्रवजू॥४६॥ गङ्गाजलप्रविलोच्यमनोनिकेतं तुर्य च वर्यतरमंगजमत्र गंगं । जाता पुरस्तदनुपुत्तलिका स्वसैषां वक्रषु सज्जिनवरस्य सरस्वतीव ॥४७॥ सम्यक्त्वदायकलिता किलरेवतीव सीतेव शीलसलिलोक्षितभूरिमूमिः । राजीमतीव सुभगागुणरत्नराशि वेलासरस्वती इवांचति पुत्तलीह ॥४८॥ यात्रां चकार गजपंथगिरौ ससंघाह्य तत्तपो विदधती सुदृढव्रता सा । सच्छान्तिकं गणसमर्चनमर्हदीश नित्यार्चनं सकलसंघ सदत्तदानं ॥४९॥ तुंगीगिरौ च बलभद्रमुनेः पदाब्जभृङ्गी तथैव सुकृतं यतिभिश्चकार । श्रीमल्लिभूषणगुरुप्रवरोपदेशाच्छास्त्र व्यधाय यदिदं कृतिनां हृदिष्टं ॥५०॥
-पल्यविधान कथा प्रशस्ति । उक्त प्रशस्ति पद्योंमें उल्लिखित भानुभूपति ईडरके राठौरवंशी राजा थे। यह राव• पूंजाजी प्रथमके पुत्र और राव नारायणदासजीके भाई थे और उनके बाद राज्यपदपर आसीन
हुए थे। इनके समय वि० सं० १५०२में गुजरातके बादशाह मुहम्मदशाह द्वितीयने ईडरपर चढ़ाई की थी तब उन्होंने पहाड़ोंमें भागकर अपनी रक्षा की, बादमें उन्होंने सुलह करली थी। फारसी तवारीखोंमें इनका वीरराय नामसे उल्लेख किया गया है। इनके दो पुत्र थे सूरजमल्ल और भीमसिंह । रावभाणजीने सं० १५०२से १५५२ तक राज्य किया है। इनके बाद रावसूरजमल्लजी सं० १५५२में राज्यासीन हुए थे। रावभाणजीके राज्यकालमें ही उक्त 'पल्यविधान कथा'की रचना हुई है। इससे श्रुतसागरका समय विक्रमकी सोहलवीं शताब्दीका प्रथमद्वितीय चरण निश्चित होता है।
श्रुतसागरकी मृत्यु कब और कहाँ हुई उसका कोई निश्चित आधार अबतक नहीं मिला इसीसे उनके उत्तर समयकी निश्चित सीमा निर्धारित करना कठिन है, फिर भी स० १५८२से पूर्व तक उसकी सीमा जरूर है और जिसका आधार निम्न प्रकार है:
श्रुतसागरने पं० आशाधरजीके महाअभिषेकपाठपर एक टीका लिखी है जो अभिषेकपाठसंग्रहमें प्रकाशित हो चुकी है। उसकी लेखक प्रशस्ति सं० १५८२की है जिसे १ देखो, भारतके प्राचीन राजवंश भाग ३ पृ० ४२७ । २ सं० १५८५की लिखी हुई श्रुतसागरको षट्पाहुड टीकाकी एक प्रति आमेरके शास्त्रभण्डारमें मौजूद mal है और उसकी लेखक प्रशस्ति मेरी नोटबुकमें उद्ध त है। 5000
www.jainelibrary.org