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ब्रह्मश्रुतसागरका समय और साहित्य
(लेखक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
ब्रह्मश्रुतसागर मूलसंघ सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके विद्वान थे। इनके गुरुका नाम विद्यानन्दी था, जो भट्रारक पद्मनन्दीके प्रशिष्य और देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य थे। और देवेन्द्रकीर्तिके बाद भट्टारक पदपर आसीन हुए थे। विद्यानन्दीके बाद उक्त पदपर क्रमशः मल्लिभूषण और लक्ष्मीचन्द्र प्रतिष्ठित हुए थे। इनमें मल्लिभूषणगुरु श्रुतसागरको परम आदरणीय गुरुभाई मानते थे और इनकी प्रेरणासे श्रुतसागरने कितने ही. ग्रन्थोंका निर्माण किया है। ये सब सूरतकी गद्दीके भट्टारक हैं । इस गद्दीकी परम्परा भ० पद्मनन्दीके बाद देवेन्द्रकीर्तिसे प्रारम्भ हुई जान पड़ती है । ब्रह्मश्रुतसागर भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित नहीं हुए थे; किन्तु वे जीवनपर्यन्त देशव्रती ही रहे जान पड़ते हैं, उन्होंने अपनेको ग्रन्थोंमें 'देशवती' शब्दसे उल्लेखित भी किया है। वे संस्कृत और प्राकृत भाषाके अच्छे विद्वान थे। उन्हें 'कलिकाल सर्वज्ञ, उभय भाषाकविचक्रवर्ती, तार्किकशिरोमणि, परमागमप्रवीण और नवनवतिमहावादि विजेता' आदि अनेक उपाधियाँ प्राप्त थीं जिनसे उनकी प्रतिष्ठा और विद्वत्ताका अनुमान लगाया जा सकता है।
अब जानना यह है कि वे कब हुए हैं ? यद्यपि श्रुतसागरजीने अपनी कृतियोंमें उनका रचनाकाल नहीं दिया जिससे यह बतलाया जा सके कि उन्होंने अमुक समयसे लेकर अमुक समय तक किन किन ग्रन्थोंकी किस क्रमसे रचना की है; किन्तु अन्य दूसरे साधनोंके आधारसे यह अवश्य कहा जा सकता है कि ब्रह्मश्रु तसागरका समय विक्रमकी सोलहवीं शताब्दीका प्रथम, द्वितीय व तृतीय चरण है। अर्थात् वे वि० सं० १५००से १५७५के मध्यवर्ती विद्वान् हैं। इसके दो आधार हैं एक तो यह कि भट्टारक विद्यानन्दीके वि० सं० १४६से वि० सं० १५२३ तकके ऐसे मूतिलेख पाये जाते हैं जिसकी प्रतिष्ठा भ० विद्यानन्दीने स्वयं की है अथवा जिनमें भ० विद्यानन्दीके उपदेशसे प्रतिष्ठित होनेका समुल्लेख पाया जाता है। और मल्लिभूषणगुरु' वि० सं० १५४४ तक या उसके कुछ समय बाद तक पट्टपर आसीन रहे हैं ऐसा सूरत
आदिके मूर्तिलेखोंसे स्पष्ट जाना जाता है । इससे स्पष्ट है कि भ० विद्यानन्दीके प्रियशिष्य ब्रह्म. श्रुतसागरका भी यही समय है । क्योंकि यह विद्यानन्दीके प्रधान शिष्य थे। दूसरा आधार यह है कि उनकी रचनाओं में एक 'व्रतकथाकोश'का भी नाम दिया हुआ है, जिसे मैंने देहलीके पञ्चायती मन्दिरके शास्त्रभण्डारमें देखा था और उसकी आदि अन्तकी प्रशस्तियाँ भी नोट की थीं, उनमें २४वीं 'पल्यविधानकथा'की प्रशस्तिमें ईडरके राठौर राजाभानु अथवा रावभाणजीका उल्लेख किया गया है और लिखा है कि 'भानुभूपतिकी भुजारूपी तलवारके जल प्रवाहमें शत्रुकुलका विस्तृत प्रभाव निमग्न होजाता था और उनका मन्त्री हुँबड़ कुलभूषण भोजराज था, उसकी पत्नीका नाम विनयदेवी था जो अतीव पतिव्रता साध्वी और जिनदेवके चरणकमलोंकी उपासिका थी। उससे चार पुत्र उत्पन्न
१ देखो, दानवीर माणिकचन्द पृ० ३७ । २ देखो, गुजरातीमन्दिर सूरतके मूर्तिलेख, दानवीर माणिकचन्द पृ० ५३, ५४ । ३ मल्लिभषणके द्वारा प्रतिष्ठित पद्मावतीकी सं० १५४४की प्रतिष्ठित एक मूर्ति, जो सूरतके बड़े मन्दिरजीमें विराजमान है।
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