Book Title: Anekant 1948 11 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 72
________________ ४७६ ] . अनेकान्त वर्ष ह भ० लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य ब्रह्मज्ञानसागरके पठनार्थ आर्या विमलश्रीकी चेली और भ० लक्ष्मीचन्द्र द्वारा दीक्षित विनयश्रीने स्वयं लिखकर प्रदान की थी। इसके सिवाय, ब्रह्मनेमिदत्तने अपने आराधनाकथाकोश, श्रीपालचरित, सुदर्शनचरित, रात्रिभोजनत्यागकथा और नेमिनाथ पुराण आदि ग्रन्थोंमें श्रुतसागरका आदर पूर्वक स्मरण किया है। इन ग्रन्थोंमें आराधनाकथाकोश सं० १५७५के लगभगकी रचना है और श्रीपालचरित सं० १५८५में रचा गया है। शेष रचनाएँ इसी समयके मध्यकी या आसपासके समयकी जान पड़ती हैं।। ब्रह्मश्रुतसागरकी अब तक ३६ रचनाओंका' पता चला है जिनमेंसे ८ टीकाग्रन्थ हैं और शेष सब स्वतन्त्र कृतियाँ हैं उनके नाम इस प्रकार हैं: १ यशस्तिलकचन्द्रिका, २ तत्त्वार्थवृत्ति, ३ तत्त्वत्रयप्रकाशिका, ४ जिनसहस्त्रनामटीका, ५ महाअभिषेकटीका, ६ षट्पाहुडटीका, ७ सिद्धभक्तिटीका, ८ सिद्धचक्राष्टकटीका, ज्येष्टजिनवरकथा, १० रविव्रतकथा, ११ सप्तपरमस्थानकथा, १२ मुकुटसप्तमकोथा, १३ अक्षयनिधिकथा, १४ षोडशकारणकथा, १५ मेघमालाव्रतकथा, १६ चन्दनषष्ठीकथा, १७ लब्धिविधानकथा, १८ पुरन्दरविधानकथा, १६ दशलाक्षिणीव्रतकथा, २० पुष्पाञ्जलिव्रतकथा, २१ आकाशपञ्चमीकथा, २२ मुक्तावलिव्रतकथा, २३ निदुखसप्तमीकथा, २४ सुगन्धदशमीकथा, २५ श्रवणद्वादशीकथा, २६ रत्नत्रयव्रतकथा, २७ अनन्तव्रतकथा, २८ अशोकरोहिणीकथा, २६ तपोलक्षणपंक्तिकथा, ३० मेरुपंक्तिकथा, ३१ विमानपंक्तिकथा, ३२ पल्यविधानकथा । (इन कथाओंमें नं० इसे लेकर ३२ तकके ग्रन्थ 'व्रतकथाकोश' नामसे एक ग्रन्थमें संग्रह कर दिये गये हैं; परन्तु वे एक ग्रन्थके अङ्ग नहीं हैं उनमें भिन्न भिन्न व्यक्तियोंके अनुरोध एवं उपदेशादि द्वारा रचे जानेका स्पष्ट उल्लेख निहित है इसीसे यहाँ उन्हें एक ग्रन्थका नाम न देकर स्वतन्त्र २४ ग्रन्थके रूपमें उल्लेखित किया है)। ३३ श्रीपालचरित, ३४ यशोधरचरित, ३५ औदार्यचिन्तामणी (प्राकृत स्वोपज्ञवृत्तियुक्तव्याकरण) ३६ श्रुतस्कन्धपूजा। ता० २५-१-४६ सुधार-सूचना अनेकान्तकी गत १०वीं किरणके प्रथम पृष्ठपर प्रकाशित 'मदीया द्रव्यपूजा' नामकी कविताके छपनेमें कुछ अशुद्धियाँ होगई हैं और कुछ उसके लेखक युगवीरजीने उसमें थोड़ा-सा नया संस्कार भी किया है अतः पाठक अपनी-अपनी प्रतिमें उसको निम्न प्रकारसे सुधार कर पढ़नेकी कृपा करें: प्रथम पद्यमें 'मयं'की जगह 'मिदं' और 'समर्पयामि इति'की जगह 'समर्पयेऽहमिति' बना लेवें । द्वितीय पद्यमें 'एतच्चाऽऽहदि'के स्थानपर 'एतन्मे हदि', 'रसयुतै-रन्नादिपानैःसह के स्थानपर 'रसयुतैरन्नादिभीरोचनैः', 'त्वपण-चर्थता के स्थान पर त्वर्पण-मोघता' और 'सद्भेषजाऽऽनर्थ्यवन्'के स्थानपर 'सद्भेषजाऽऽनर्थ्यवत्' ऐसा पाठ कर लेवें। तृतीय पद्यमें तत्तम्'की जगह 'तत्तत्' किया जाना चाहिये । चतुर्थ पद्यमें 'शिरौनके स्थानपर 'शिरोऽन' और 'एतन्मे तव द्रव्य-पूजनमहो!'के स्थानपर एतद्रव्यसुपूजनं मम विभो !' बना लेना चाहिये। साथ ही इसके द्वितीय चरणमें द्वितीय पद्यके द्वितीय चरण-जैसा जो व्यर्थका डैश (-) पड़ा हुआ है उसे निकाल कर पूर्वापर अक्षरोंको मिला देना चाहिये और अन्तमें लेखकका नाम 'युगवीर' दे देना चाहिये । -प्रकाशक Jain Education International १ नं. १, ५, ६की टीकाएँ प्रकाशित होचुकी हैं नं० २की टीका भारतीयज्ञानपीठकाशीसे प्रकाशित हो रही है। नं. ३, ४की टीकाएँ और शेष सब ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित हैं। www.jainelibrary.org

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