Book Title: Anekant 1948 11 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 81
________________ किरण १२ ] सम्पादकीय [४८५ जैनाचार्योंने बहुत बड़ा योगदान दिया है। उनके सामने आदर्श था भगवान महावीरका । जिसमें अपनी विचार धाराका निर्मल प्रवाह तत्कालीन प्रान्तीय भाषा द्वारा बहाया था। भगवान बुद्धके उपदेश भी इस बातके प्रमाण हैं। जैन विद्वान संस्कृत आदि विद्वद्भोग्य भाषाओंमें ग्रन्थ निर्माण करके ही चुप नहीं रहे हैं। उन्होंने विभिन्न प्रान्तोंमें रहकर प्रत्येक शताब्दियोंमें लोक भोग्य साहित्यकी सरिता बहाकर तत्कालीन लोक संस्कृतिको आलोकित किया। लौकिक भाषामें संस्कृतके प्रकाण्ड पण्डितोंने रचना करना अपना अपमान समझा इससे वे एकाङ्गी साहित्य निर्माता ही रह गये । जिन जीवोंकी गहराई तक वे न पहुंच सके। जब कि जैनाचार्योंके सम्मुख सबसे बड़ी समस्या थी जनता की। वे जनताको दर्शन, एवं साहित्यके उच्चकोटिके तत्त्वोंका परिज्ञान सरल और बोधगम्य भाषामें कराना चाहते थे। इस कार्यमें वे काफी सफल रहे । इसका अर्थ यह नहीं कि वे विद्वद्भोग्य साहित्य निर्माणमें पश्चात् याद रहे । आज हम किसी भी प्रान्तके लोक साहित्यको उठा कर देखेंगे तो पता चलेगा कि प्रत्येक प्रान्तकी जनभाषाओंके विकासमें भी जैनोंने साहित्य निर्माणमें कितना असांप्रदायिकतासे काम लिया है जब जिस भाषाका प्रभुत्व रहा उसीकी साधनामें वे तल्लीन रहे हैं। कारण कि जब संस्कृतिके नैतिक उत्थानकी भावनाओंसे उनका हृदय ओत-प्रोत था। ऊपर हम लिख आए हैं कि हिन्दी भाव और भाषाकी दृष्टिसे अपभ्रंशकी पत्री है अपभ्रंशका साहित्य जो कुछ भी आज भारतमें प्राप्त होता है, वह जैनोंकी बहुत बड़ी देन है। भाव स्वातन्त्र इसकी बहुत बड़ी विशेषता है। राहुलजीके शब्दोंमें .. "अपभ्रंशके कवियोंका विस्मरण करना हमारे लिए हानिकी वस्तु है । यही कमी हिन्दी काव्यधाराके प्रथम स्रष्टा थे। वे अश्वघोष, भास, कालिदास और बाणकी सिर्फ नठी पत्तलें नहीं चाटते रहे । बल्कि उन्होंने एक योग्य पुत्रकी तरह हमारे काव्य-क्षेत्र में नया सृजन किया है। नये चमत्कार नए भाव पैदा किए हैं। __हमारे विद्यापति, कबीर, सूर, जायसी, और तुलसीके यही उज्जीवक और प्रथम प्रेरक रहे हैं। उन्हें छोड़ देनेसे बीचके कालममें हमारी बहुत हानि हुई और आज भी उसकी सम्भावना है। - जैनोंने अपभ्रंश साहित्यकी रचना और उसकी सुरक्षामें सबसे अधिक काम किया है।" १३ तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंशमें प्रौढत्व रहा। बादमें वही अपभ्रंश क्रमशः विकसित होते होते प्रान्तीय भाषाओंके रूपमें परिणित हो गई। एक समय वह जनताकी भाषा थी ज्यों-ज्यों उच्चकोटिके कलाकारों द्वारा समाहत होती गई त्यों-त्यों वह विद्वद्भोग्य साहित्यकी प्रधान भाषा बन गई। अपभ्रंश भाषाका शब्द भण्डार विस्तृत है और बहुत कुछ अंशोंमें वह संस्कृतकी अपेक्षा प्राकृतका अनुधारण करता है। अतः बिना किसी हिचकसे कहा जा सकता है, कि हिन्दीका उत्पत्ति स्थान अपभ्रंश है । जो परिवर्तनशील भाषा रही थी। दुःख इस बातका है कि हिन्दी साहित्यके मर्मज्ञ विद्वान जैनोंके इस विशाल अपभ्रंश साहित्यसे एकदम परिचित नहीं हैं। यही कारण है कि आज राष्ट्र-भाषाकी समस्या उलझी हुई है। हिन्दी, गुजराती, मराठी, तामिल, कन्नड़ और राजस्थानी आदि सभी प्रान्तीय भाषाओं में जैनोंने न केवल भगवान महावीर' द्वारा प्रचारित मानव संस्कृति और सभ्यताके उच्चतम अमर तत्वांका सुबोध भाषामें गुम्फन किया अपितु तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक. रीतिरिवाज एवं आध्यात्मिक तत्त्वोंकी ओर भी सङ्केतकर जनताके नैतिक स्तरको ऊँचा उठाने का प्रयास किया है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रान्तमें जब कभी जिस भाषाका प्रभुत्व रहा उसीके माध्यम द्वारा जैनोंने अपने विचार जनताके समक्ष रक्खे हैं। 'प्रान्तीय' जानतिक Jain Education Interatio

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