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अनेकान्त
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[ वर्षे ह
अपेक्षा कम होता है । जितना मज़दूरोंको देनेके बाद बच जाता है, वह पूँजपतियोंके कोषसें सचित होता है । इस प्रकार समाजमें व्यवसायिक क्रान्तिके फलस्वरूप पूँजी कुछ ही स्थानों में सचित हो जाती है, यही पूँजीवाद कहलाता है । पूँजी उत्पादन के प्रधान चार साधन हैंभूमि, मज़दूरी, पूँजी और संगठन । इन चारोंकी आय लगान या किराया, पारिश्रमिक — वेतन, व्याज और लाभ कहलोती है ।!
पूंजीवाद और धर्म
एक युग ऐसा था, जब समाजकी सुव्यवस्था के लिये पूँजीवादकी आवश्यकता थी । स्वभावतः देखा जाता है कि जब पृथ्वीपर जनसंख्याकी वृद्धि हो जाती है, तब व्यक्तित्व विकासकी भावनाएँ प्रबल होती हैं तथा समाजका प्रत्येक सदस्य अहङ्कार और व्यक्तिंगत स्वार्थोंके लिये भौतिक उन्नति में स्पर्धा करता है, यही एक-दूसरेकी बढ़ा-चढ़ीकी भावना पूँजीवाद को जन्म देती है । प्राचीनयुगमें जब जनसंख्या सीमित थी, उस समय समाजकी शक्तिको बढ़ानेके लिये पूँजीवादको धार्मिकरूप दिया गया था । वस्तुतः समाजकी शक्तिके लिये कुछ ही ' स्थानोंमें पूँजीका सचित करना आवश्यक था। लेकिन उस युगमें संचित करनेवाला व्यक्ति अकेला ही उम्र सम्पत्तिके उपभोग करनेका अधिकारी नहीं था, वह रक्षक के रूपमें रहता था, तथा आवश्यकता पड़ने पर उसे अपनी सम्पत्ति समाजको देनी पड़ती थी। उस समय समाज संचालन के लिये एक ऐसी व्यवस्थाकी आवश्यकता थी, जिसके द्वारा आवश्यकता पड़नेपर पर्याप्त धन लिया जा सके ।
पूंजीवादी आलोचना
संसारकी सभी वस्तुएँ गुण-दोषात्मक हुआ करती हैं। ऐसी कोई व्यवस्था नहीं मिलेगी, जिसमें केवल गुण या दोष ही हों। पूँजीवाद जहाँ धार्मिक दृष्टिसे एक युगमें समाज - व्यवस्थामें सहायक था, वहाँ आज समाजके लिये हानिकारक है । क्योंकि जब राग-द्वेष युक्त अपरिमित भौतिक उन्नतिसे जगतमें विषमता अत्यधिक बढ़ जाती है, उस समय विषमता जन्य दुखोंसे छुटकारा पानेके लिये प्रत्येक मानव तिलमिलाने लगता है, जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप अन्य सामाजिक व्यवस्था जन्म ग्रहण करती है। क्योंकि वही आर्थिक विचारधारा प्रत्येक व्यक्ति के लिये धार्मिक हो सकती है जिससे शारीरिक शक्तिको विकसित करनेवाले साधन आसानी से प्राप्त हो सकें ।
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आज समाजमें चलनेवाला शोषण (exploitation) जो कि पूँजीवादका कारण है, धार्मिक है । शोषण समाजके प्रत्येक सदस्यको उचित और उपयुक्त मात्रामें शरीर धारणकी आवश्यक सामग्री देनेमें बाधक है। अतः पूँजीवाद आजके लिये अधार्मिक है । धर्म और मार्क्स - विचारधारा
यद्यपि लोग मार्क्सको धर्मका विरोधी मानते हैं, पर वास्तविक कुछ और है। मार्क्स - जिस आदर्श समाजकी कल्पना की है, वह धर्मके बिना एक कदम भी नहीं चल सकता । पर इतना सुनिश्चित है कि मार्क्सकी धर्मं परिभाषा केवल शारीरिक शक्तिके विकास तक ही सीमित है, मानसिक आध्यात्मिक शक्ति के विकास पर्यन्त उसकी पहुंच नहीं । जीवनके लिये सिर्फ भोजन और वस्त्र ही आवश्यक नहीं, किन्तु एक ऐसी वस्तुकी भी आवश्यकता है जो मानसिक और आध्यात्मिक तृप्तिमें कारण है; वह है संयम और आत्मनियन्त्रण | व भौतिक दृष्टि समाजको सुव्यवस्थित करनेवाले आर्थिक परिस्थितिका निश्चयात्मक स्वभाव
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