Book Title: Anekant 1948 11 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 40
________________ ४४४ ] अनेकान्त [वर्ष ९ भद्रबाहुसंहिता और उपसग्गहरस्तोत्रके भी नाम लिये जाते हैं और जो ज्योतिर्विद् वराहमिहरके सगे भाई माने जाते हैं । इन्होंने दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्तिमें स्वयं अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुको 'प्राचीन' विशेषणके साथ नमस्कार किया है', उत्तराध्ययननियुक्तिमें मरणविभक्तिके सभी द्वारोंका क्रमशः वर्णन करनेके अनन्तर लिखा है कि ‘पदार्थोंको सम्पूर्ण तथा विशदरीतिसे जिन (केवलज्ञानी) और चतुर्दशपूर्वी २ (श्रुतकेवली ही) कहते हैं-कह सकते हैं', और आवश्यक आदि ग्रन्थोंपर लिखी गई अनेक नियुक्तियोंमें आर्यवज्र, आर्यरक्षित, पादलिप्ताचार्य, कालिकाचार्य और शिवभूति आदि कितने ही ऐसे आचार्योंके नामों, प्रसङ्गों, मन्तव्यों अथवा तत्सम्बन्धी अन्य घटनाओंका उल्लेख किया गया है जो भद्रबाहु श्रुतकेवलीके बहुत कुछ बाद हुए हैं-किसी-किसी घटनाका समय तक भी साथमें दिया है; जैसे निह्नवोंकी क्रमशः उत्पत्तिका समय वीरनिर्वाणसे ६०६ वर्ष बाद तकका बतलाया है। ये सब बातें और इसी प्रकारको दूसरी बातें भी नियुक्तिकार भद्रबाहुको श्रुतकेवली बतलानेके विरुद्ध पड़ती हैं-भद्रबाहुश्रु तकेवलीद्वारा उनका उस प्रकारसे उल्लेख तथा निरूपण किसी तरह भी नहीं बनता । इस विषयका सप्रमाण विशद एवं विस्तृत विवेचन मुनि पुण्यविजयजाने आजसे कोई सात वर्ष पहले अपने 'छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार' नामके उस गुजराती लेखमें किया है जो ‘महावीर जैनविद्यालय-रजत-महोत्सव-ग्रन्थ में मुद्रित है। साथ ही यह भी बतलाया है कि 'तित्थोगालिप्रकीर्णक, आवश्यकचूर्णि, आवश्यक-हारिभद्रीया टीका. परिशिष्ट. पर्व आदि प्राचीन मान्य ग्रन्थोंमें जहाँ चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु (श्रु तकेवली)का चरित्र वर्णन किया गया है वहाँ द्वादशवर्षीय दुष्काल...."छेदसूत्रोंकी रचना आदिका वर्णन तो है परन्तु वराहमिहरका भाई होना, नियुक्तिग्रन्थों, उपसर्गहरस्तोत्र, भद्रबाहुसंहितादि ग्रन्थोंकी रचनासे तथा नैमित्तिक होनेसे सम्बन्ध रखनेवाला कोई उल्लेख नहीं है। इससे छेदसत्रकार भदबाह और नियुक्ति आदिके प्रणेता भद्रबाहु एक दूसरेसे भिन्न व्यक्तियाँ हैं। ___ इन नियुक्तिकार भद्रबाहुका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका प्रायः मध्यकाल है; क्योंकि इनके समकालीन सहोदर भ्राता वराहमिहरका यही समय सुनिश्चित है उन्होंने अपनी 'पञ्चसिद्धान्तिका'के अन्तमें, जो कि उनके उपलब्ध ग्रन्थोंमें अन्तकी कृति मानी जाती है, अपना समय स्वयं निर्दिष्ट किया है और वह है शक संवत् . ४२७ अर्थात् विक्रम संवत् ५६२ । यथा"सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ । अर्धास्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाद्य ॥" जब नियुक्तिकार भद्रबाहुका उक्त समय सुनिश्चित हो जाता है तब यह कहनेमें कोई आपत्ति नहीं रहती कि सन्मतिकार सिद्धसेनके समयकी पूर्व सीमा विक्रमकी छठी शताब्दीका तृतीय चरण है और उन्होंने क्रमवादके पुरस्कर्ता उक्त भद्रबाहु अथवा उनके अनुसर्ता किसी शिष्यादिके क्रमवाद-विषयक कथनको लेकर ही सन्मतिमें उसका खण्डन किया है। १ वदामि भद्दबाहु पाईणं चरिमसगलसुयणाणिं । सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे ॥१॥ २ सव्वे एए दारा मरणविभत्तीइं वरिणया कमसो । सगलणि उणे पयत्थे जिणचउदसपुवि भासते ॥२३३॥ ३ इससे भी कई वर्ष पहले आपके गुरु मुनि श्रीचतुरविजयजीने श्रीविजयानन्दसूरीश्वरजन्मशताब्दिस्मारकग्रन्थमें मुद्रित अपने 'श्रीभद्रबाहुस्वामी' नामक लेखमें इस विषयको प्रदर्शित किया था और यह सिद्ध किया था कि नियुक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकेवली भद्रबाहुसे भिन्न द्वितीय भद्रबाहु हैं और वराहमिहरके सहोदर होनेसे उनके समकालीन हैं । उनके इस लेखका अनुवाद अनेकान्त वर्ष ३ Jain Education Intemational किरण १२में प्रकाशित हो चुका है। For Personal & Private Use Only ...म्नतांत.tarai www.jainelibrary.org

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