Book Title: Anekant 1948 11 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 55
________________ Jain Education International किए ११३ सन्मति - सिद्धसेनाङ्क (क) उदितोऽर्हन्मत- व्योम्नि सिद्धसेनदिवाकरः । चित्रं गोभिः क्षितौ जह कविराज -बुध-प्रभा ॥ यह विक्रमकी १३वीं शताब्दी (वि० सं० १२५२ ) के प्रन्थ अममचरित्रका पद्य है । इसमें रत्नसूर अलङ्कार - भाषाको अपनाते हुए कहते हैं कि 'अर्हन्मतरूपी आकाशमें सिद्धसेनदिवाकरका उदय हुआ है, आश्चर्य है कि उसकी वचनरूप - किरणोंसे पृथ्वीपर कविराजकी — बृहस्पतिरूप 'शेष' कविकी — और बुधकी— बुधप्रहरूप विद्वद्वर्गकी - प्रभा लज्जित होगई— फीकी पड़ गई है।' (ख) तमः स्तोमं स हन्तु श्रीसिद्धसेनदिवाकरः । यस्योदये स्थितं मूकैरुलकैरिव वादिभिः ॥ [ ४५६ यह विक्रमी १४वीं शताब्दी (सं० १३२४) के प्रन्थ समरादित्यका वाक्य है, जिसमें प्रद्युम्नसूरिने लिखा है कि 'वे श्रीसिद्धसेन दिवाकर (अज्ञान) अन्धकारके समूहको नाश करें जिनके उदय होनेपर वादीजन उल्लुओं की तरह मूक होरहे थे- उन्हें कुछ बोल नहीं आता था ।' (ग) श्रीसिद्धसेन - हरिभद्रमुरवाः प्रसिद्धास्ते सूरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः । येषां विमृश्य सततं विविधान्निबन्धान् शास्त्रं चिकीर्षति तनुप्रतिभोऽपि मादृक् ॥ यह ‘स्याद्वादरत्नाकर' का पद्य है। इसमें १२वीं - १३वीं शताब्दी के विद्वान् वादिदेव - सूरि लिखते हैं कि 'श्रीसिद्धसेन और हरिभद्र जैसे प्रसिद्ध श्राचार्य मेरे ऊपर प्रसन्न होवें, जिनके विविध निबन्धोंपर बार-बार विचार करके मेरे जैसा अल्प प्रतिभाका धारक भी प्रस्तुत शास्त्रके रचनेमें प्रवृत्त होता है ।' (घ) व सिद्धसेन - स्तुतयो महार्था अशिक्षितालापकला क्क चैषा । तथाऽपि यूथाधिपतेः पथस्थः स्खलद्गतिस्तस्य शिशुर्न शोच्यः ॥ यह विक्रमकी १२वीं - १३वीं शताब्दीके विद्वान् आचार्य हेमचन्द्रकी एक द्वात्रिंशिका 'स्तुतिका पद्य है। इसमें हेमचन्द्रसूरि सिरूसेनके प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पण करते हुए लिखते हैं कि 'कहाँ तो सिद्धसेनकी महान् अथवाली गम्भीर स्तुतियाँ और कहाँ अशिक्षित मनुष्योंके आलाप-जैसी मेरी यह रचना ? फिर भी यूथके अधिपति गजराजके पथपर चलता हुआ उसका बच्चा (जिस प्रकार ) स्खलितगति होता हुआ भी शोचनीय नहीं होता - उसी प्रकार मैं भी अपने यूथाधिपति आचार्य के पथका अनुसरण करता हुआ स्खलितगति होनेपर शोचनीय नहीं हूँ ।' यहाँ 'स्तुतयः' 'यूथाधिपतेः' और 'तस्य शिशुः' ये पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं । 'स्तुतयः' पदके द्वारा सिद्धसेनीय ग्रन्थों के रूप में उन द्वात्रिंशिकाओं की सूचना की गई है जो स्तुत्यात्मक हैं और शेष पदोंके द्वारा सिद्धसेनको अपने सम्प्रदायका प्रमुख आचार्य और अपनेको उनका परम्परा शिष्य घोषित किया गया है। इस तरह श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्य रूपमें यहाँ वे सिद्धसेन विवक्षित हैं जो कतिपय स्तुतिरूप द्वात्रिंशिका के कर्ता हैं, न कि वे सिद्धसेन जो कि स्तुत्येतर द्वात्रिंशिकाओं के अथवा खासकर सन्मतिसूत्रके रचयिता हैं । श्वेताम्बरीय प्रबन्धोंमें भी, जिनका कितना हो परिचय ऊपर आचुका है, उन्हीं सिद्धसेनका उल्लेख मिलता है जो प्राय: द्वात्रिंशिकाओं अथवा द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका - स्तुतियों के कर्तारूप में विवक्षित हैं | सन्मतिसूत्रका उन प्रबन्धों में कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है । ऐसी स्थिति में सन्मतिकार सिद्धसेन के लिये जिस 'दिवाकर' विशेषणका हरिभद्रसूरिने स्पष्टरूपसे उल्लेख किया है वह बादको नाम साम्यादिके कारण द्वात्रिंशिकायोंके कर्ता सिद्धसेन एवं न्यायावतार के For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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