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किरण ११ ]
“असिद्ध इत्यादि, स्वलक्षणैकान्तस्य साधने सिद्धावङ्गीक्रियमानायां सर्वो हेतुः सिद्धसेनस्य भगवतोऽसिद्धः। कथमिति चेदुच्यते । ततः सूक्तमेकान्तसाधने हेतुरसिद्धः सिद्धसेनस्येति । कश्चित्स्वयूथ्योऽत्राह—सिद्धसेनेन क्वचित्तस्याऽसिद्धस्याऽवचनादयुक्तमेतदिति । तेन कदाचिदेतत् श्र तं—‘जे संतवायदोसे संक्कोल्ल्या भरणंति संखाणं । संखा य सव्वाए तेसिं सव्वे वि ते सच्चा' ॥” इन्हीं सब बातोंको लक्ष्य में रखकर प्रसिद्ध श्वताम्बर विद्वान् स्वर्गीय श्रीमोहनलाल दलीचन्द देशाई बीए. ए., एल-एल. बी. एडवोकेट हाईकोर्ट बम्बईने, अपने जैन - साहित्य संक्षिप्त इतिहास' नामक गुजराती ग्रन्थ (पृ. ११६) में लिखा है कि “सिद्धसेनसूरि प्रत्येनो आदर दिगम्बरो विद्वानोमा रहेलो देखाय छे” अर्थात् (सन्मतिकार) सिद्धसेनाचार्य के प्रति आदर दिगम्बर विद्वानों में रहा दिखाई पड़ता है - श्वेताम्बरोंमें नहीं। साथ ही हरिवंशपुराण, राजवार्तिक, सिद्धिविनिश्चय-टीका, रत्नमाला, पार्श्वनाथचरित और एकान्तखण्डन- जैसे दिगम्बर ग्रन्थों तथा उनके रचयिता जिनसेन, अकलङ्क, अनन्तवीर्य, शिवकोटि, वादिराज और लक्ष्मीभद्र(धर) जैसे दिगम्बर विद्वानोंका नामोल्लेख करते हुए यह भी बतलाया है कि 'इन दिगम्बर विद्वानोंने सिद्धसेनसूरि-सम्बन्धी और उनके सन्मतितर्क - सम्बन्धी उल्लेख भक्तिभावसे किये हैं,. और उन उल्लेखोंसे यह जाना जाता है कि दिगम्बर ग्रन्थकारोंमें घना समय तक सिद्धसेनके (उक्त) ग्रन्थका प्रचार था और वह प्रचार इतना अधिक था कि उसपर उन्होंने टीका भी रची है।
सन्मति - सिद्धसेनाङ्क
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इस सारी परिस्थितिपरसे यह साफ समझा जाता और अनुभव में श्राता है कि सन्मतिसूत्रके कर्ता . सिद्धसेन एक महान् दिगम्बराचार्य थे, और इसलिये उन्हें श्वेताम्बरपरम्पराका अथवा श्वेताम्बरत्वका समर्थक आचार्य बतलाना कोरी कल्पना के सिवाय और कुछ भी नहीं है । वे अपने प्रवचन - प्रभाव आदिके कारण श्वेताम्बरसम्प्रदाय में भी उसी प्रकार से अपनाये गये हैं जिस प्रकार कि स्वामी समन्तभद्र, जिन्हें श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें पट्टाचार्य तकका पद प्रदान किया गया है और जिन्हें पं० मुखलाल, पं० बेचरदास और मुनि जिनविजय आदि बड़े-बड़े श्वेताम्बर विद्वान् भी अब श्वेताम्बर न मानकर दिगम्बर मानने लगे हैं।
कतिपय द्वात्रिंशिका के कर्ता सिद्धसेन इन सन्मतिकार सिद्धसेनसे भिन्न तथा पूर्ववर्ती दूसरे ही सिद्धसेन हैं, जैसा कि पहले व्यक्त किया जा चुका है, और सम्भवतः वे ही उज्जयिनीके महाकालमन्दिरवाली घटनाके नायक जान पड़ते हैं। हो सकता है कि वे शुरू श्वेताम्बर सम्प्रदाय दीक्षित हुए हों, परन्तु श्वेताम्बर आगमोंको संस्कृतमें कर देनेका विचारमात्र प्रकट करनेपर जब उन्हें बारह वर्ष के लिये संघबाह्य करने जैसा कठोर दण्ड दिया.. गया हो तब वे सविशेषरूपसे दिगम्बर साधुओंके सम्पर्क में आए हों, उनके प्रभावसे प्रभावित तथा उनके संस्कारों एवं विचारोंको ग्रहण करनेमें प्रवृत्त हुए हों - खासकर समन्तभद्रस्वामी जीवनवृत्तान्तों और उनके साहित्यका उनपर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा हो और इसी लिये वे उन्हीं-जैसे स्तुत्यादिक कार्योंके करनेमें दत्तचित्त हुए हों। उन्हींके सम्पर्क एवं संस्कारों हुए ही सिद्धसेन से उज्जयिनीकी वह महाकालमन्दिरवाली घटना बन पड़ी हो, जिससे उनका प्रभाव चारों ओर फैल गया हो और उन्हें भारी राजाश्रय प्राप्त हुआ हो । यह सब देखकर ही श्वेताम्बरसंघको अपनी भूल मालूम पड़ी हो, उसने प्रायश्चित्तकी शेष अवधिको रद्द कर दिया हो और सिद्धसेनको अपना ही साधु तथा प्रभावक आचार्य घोषित किया हो । अन्यथा, द्वात्रिंशिकाओं पर से सिद्धसेन गम्भीर विचारक एवं कठोर समालोचक होनेके साथ साथ जिस उदार स्वतन्त्र और निर्भय - प्रकृतिके समर्थ विद्वान् जान पड़ते हैं उससे यह आशा नहीं की जा सकती कि उन्होंने ऐसे अनुचित एवं अविवेकपूर्ण दण्डको यों ही चुपके से गर्दन झुका कर मान लिया हो, उसका कोई प्रतिरोध न किया हो अथवा अपने लिये
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