Book Title: Anekant 1948 11 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 42
________________ ४४६ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ पूर्ववर्ती या देवनन्दीके वृद्ध समकालीनरूपमें मानिये तो भी उनका जीवनसमय पाँचवीं शताब्दीसे अर्वाचीन नहीं ठहरता। इनमेंसे प्रथम प्रमाण तो वास्तवमें कोई प्रमाण ही नहीं है; क्योंकि वह 'मल्लवादीको यदि विक्रमकी छठी शताब्दीके पूर्वार्धमें मान लिया जाय तो' इस भ्रान्त कल्पनापर अपना आधार रखता है। परन्तु क्यों मा लिया जाय अथवा क्यों मान लेना चाहिये, इसका कोई स्पष्टीकरण साथमें नहीं है । मल्लवादीका जिनभद्रसे पूर्ववर्ती होना प्रथम तो सिद्ध नहीं है, सिद्ध होता भी तो उन्हें जिनभद्रके समकालीन वृद्ध मानकर अथवा २५ या ५० वर्ष पहले मानकर भी उस पूर्ववतित्वको चरितार्थ किया जा सकता है, उसके लिये १०० वर्षसे भी अधिक समय पूर्वकी बात मान लेनेकी कोई जरूरत नहीं रहती। परन्तु वह सिद्ध ही नहीं है; क्योंकि उनके जिस उपयोग-योगपद्यवादकी विस्तृत समालोचना जिनभद्रके दो ग्रन्थों में बतलाई जाती है उनमें कहीं भी मल्लवादी अथवा उनके किसी ग्रन्थका नामोल्लेख नहीं है, होता तो पण्डितजी उस उल्लेखवाले अंशको उद्धृत करके ही सन्तोष धारण करते, उन्हें यह तर्क करनेकी जरूरत ही न रहती और न रहनी चाहिये थी कि 'मल्लवादीके द्वादशारनयचक्रके उपलब्ध प्रतीकोंमें दिवाकरका सूचन मिलने और जिनभद्रका सूचन न मिलनेसे मल्लवादी जिनभद्रसे पूर्ववर्ती है'। यह तर्क भी उनका अभीष्ट-सिद्धिमें कोई सहायक नहीं होता; क्योंकि एक तो किसी विद्वानके लिये यह लाज़िमी नहीं कि वह अपने ग्रन्थमें पूर्ववर्ती अमुक अमुक विद्वानोंका उल्लेख करे ही करे । दूसरे, मूल द्वादशारनयचक्रके जब कुछ प्रतीक ही उपलब्ध है वह पूरा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है तब उसके अनुपलब्ध अंशोंमें भी जिनभद्रका अथवा उनके किसी ग्रन्थादिकका उल्लेख नहीं इसकी क्या गारण्टी ? गारण्टीके न होने और उल्लेखोपलब्धिकी सम्भावना बनी रहनेसे मल्लवादीको जिनभद्रके पूर्ववर्ती बतलाना तकदृष्टिसे कुछ भी अर्थ नहीं रखता। तीसरे, ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावनामें पण्डित सुखलालजी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि "अभी हमने उस सारे सटीक नयचक्रका अवलोकन करके देखा तो उसमें कहीं भी केवलज्ञान और केवलदर्शन (उपयोगद्वय)के सम्बन्धमें प्रचलित उपयुक्त वादों (क्रम, युगपत् , और अभेद) पर थोड़ी भी चर्चा नहीं मिली । यद्यपि सन्मतितककी मल्लवादि-कृत-टीका उपलब्ध नहीं है पर जब मल्लवादि अभेदसमर्थक दिवाकरके ग्रन्थपर टीका लिखें तब यह कैसे माना जा सकता है कि उन्होंने दिवाकरके ग्रन्थकी व्याख्या करते समय उसीमें उनके विरुद्ध अपना युगपत् पक्ष किसी तरह स्थापित किया हो । इस तरह जब हम सोचते है तब यह नहीं कह सकते हैं कि अभयदेवके युगपद्वादके पुरस्कर्तारूपसे मल्लवादीके उल्लेखका आधार नयचक्र या उनकी सन्मतिटीकामेंसे रहा होगा।" साथ ही, अभयदेवने सन्मतिटीकामें विशेषणवतीकी “केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा” इत्यादि गाथाओंको उद्धृत करके उनका अर्थ देते हुए 'केई' पदके वाच्यरूपमें मल्लवादीका जो नामोल्लेख किया है और उन्हें युगपद्वादका पुरस्कर्ता बतलाया है उनके उस उल्लेखकी अभ्रान्ततापर सन्देह व्यक्त करते हुए, पण्डित सुखलालजी लिखते हैं-"अगर अभयदेवका उक्त उल्लेखांश अभ्रान्त एवं साधार है तो अधिकसे अधिक हम यही कल्पना कर सकते हैं कि मल्लवादीका कोई अन्य युगपत् पक्षसमर्थक छोटा बड़ा ग्रन्थ अभयदेवके सामने रहा होगा अथवा ऐसे मन्तव्यवाला कोई उल्लेख उन्हें मिला होगा।” और यह बात ऊपर बतलाई ही जा चुकी है कि अभयदेवसे कई शताब्दी पूर्वके प्राचीन आचार्य हरिभद्रसूरिने उक्त केई' पदके वाच्यरूपमें सिद्धसेनाचार्यका नाम उल्लेखित किया है, पं० सुखलालजीने उनके उस उल्लेखको महत्व दिया है तथा सन्मतिकारसे भिन्न दूसरे सिद्धसेनकी सम्भावना व्यक्त की है, और वे दूसरे सिद्धसेन उन द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता हो सकते हैं जिनमें युगपवादका समर्थन पाया जाता है. इसे भी ऊपर For Personal Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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