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किरण ११ ]
सन्मति-सिद्धसेनाङ्क
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इसको सिद्ध करनेके लिये पहले यह सिद्ध करना होगा कि सन्मतिसूत्र और तीसरी तथा नवमी द्वात्रिंशिकाएँ तीनों एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ हैं। और यह सिद्ध नहीं है । पूज्यपाद से पहले उपयोगद्वयके क्रमवाद तथा अभेदवादके कोई पुरस्कर्ता नहीं हुए हैं, होते तो पूज्यपाद अपनीं सर्वार्थसिद्धिमें सनातनसे चले आये युगपवादका प्रतिपादनमात्र करके ही न रह जाते बल्कि उसके विरोधी वाद अथवा वादोंका खण्डन जरूर करते परन्तु ऐसा नहीं है', और इससे यह मालूम होता है कि पूज्यपादके समय में केवली के उपयोग-विषयक क्रमवाद तथा अभेदवाद प्रचलित नहीं हुए थे वे उनके बाद ही सविशेषरूपसे घोषित तथा प्रचारको प्राप्त हुए हैं, और इसीसे पूज्यपादके बाद अकलङ्कादिकके साहित्यमें उनका उल्लेख तथा खण्डन पाया जाता है । क्रमवादका प्रस्थापन नियुक्तिकार भद्रबाहुके द्वारा और अभेदवादका प्रस्थापन सन्मतिकार सिद्धसेनके द्वारा हुआ है। उन वादोंके इस विकासक्रमका समर्थन जिनभद्रकी विशेषणवतीगत उन दो गाथाओं ('केई भांति जुगवं ' इत्यादि नम्बर १८४, १८५ ) से भी होता है जिनमें युगपत्, क्रम और अभेद इन तीनों वादोंके पुरस्कर्ताओंका इसी क्रमसे उल्लेख किया गया है और जिन्हें ऊपर (न० २में) उद्धृत किया जा चुका है ।
पं० सुखलालजीने नियुक्तिकार भद्रबाहुको प्रथम भद्रबाहु और उनका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दी मान लिया है, इसीसे इन वादोंके क्रम विकासको समझने में उन्हें भ्रान्ति हुई है। और वे यह प्रतिपादन करनेमें प्रवृत्त हुए हैं कि पहले क्रमवाद था, युगपत्वाद बादको सबसे पहले वाचक उमास्वाति द्वारा जैन वाङ्मयमें प्रविष्ट हुआ और फिर उसके बाद अभेदवादका प्रवेश मुख्यतः सिद्धसेनाचार्य के द्वारा हुआ है । परन्तु यह ठीक नहीं है; क्योंकि प्रथम तो युगपत्वादका प्रतिवाद भद्रबाहुकी आवश्यक नियुक्तिके " सव्वस्स केवलिस्स वि जुगवं दो पत्थि उवयोगा" इस वाक्य में पाया जाता है जो भद्रबाहुको दूसरी शताब्दीका विद्वान माननेके कारण उमास्वातिके पूर्वका ठहरता है और इसलिये उनके विरुद्ध जाता है । दूसरे, श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके नियमसार - जैसे ग्रन्थों और आचार्य भूतबलि के षट्खण्डागममें भी युगपत्वादका स्पष्ट विधान पाया जाता है । ये दोनों आचार्य उमास्वातिके पूर्ववर्ती हैं और इनके युगपद्वाद- विधायक वाक्य नमूनेके तौरपर इस प्रकार हैं:
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"जुगवं वट्ट गाणं केवलरणाणिस्स दंसणं च तहा ।
दियर - पयास - तावं जह वट्टइ तह मुणेयब्वं । । " ( शियम ० १५९ ) । “सयं भयवं उप्परण-गाण-दरिसी सदेवासुर- माणुसस्स लोगस्स आदि गर्दि चयणोववादं बंधं मोक्खं इद्धिं ठिदिं जुर्दि अणुभागं तक कलं मणोमाणसियं तं कद पडिसेविदं यदिकम्मं अरहकम्मं सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सच्व समं जाणदि पस्सदि विहरदित्ति ।" – (षट्खण्डा० ४ पयडि अ० सू० ७८) ।
१ “स उपयोगो द्विविधः । ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्च ति । साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति । तच्छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते । निरावरणेषु युगपत्
२ ज्ञान बिन्दु - परिचय पृ० ५ पादटिप्पण ।
३ "मतिज्ञानादि चतुषु पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत् । संभिन्नज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत्सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति ।”
- तस्वार्थभाष्य १- ३१ ।
४ उमास्वातिवाचकको पं० सुखलालजीने विक्रमकी तीसरीसे पाँचवीं शताब्दीके मध्यका विद्वान् बतलाया है । (ज्ञा०वि० परि० पृ० -५४ ) ।
Jain Education internation इस पूर्ववर्तित्वका उल्लेख श्रवणबेलगोलादि के शिलालेखों तथा अनेक ग्रन्थप्रशस्तियोंमें पाया जाता है ।
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