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अनेकान्त
- [वर्ष ह
स्तुतयो महार्थाः' जैसे वाक्यका उच्चारण किया जान पड़ता है, स्वामी समन्तभद्रके उत्तरकालीन रचनाएँ हैं । इन सभीपर समन्तभद्रके ग्रन्थोंकी छाया पड़ी हुई जान पड़ती है।
इस तरह स्वामी समन्तभद्र न्यायावतारके कर्ता, सन्मतिके कर्ता और उक्त द्वात्रिंशिका अथवा द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता तीनों ही सिद्धसेनोंसे पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। उनका समय विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दी है, जैसा कि दिगम्बर पट्टावली में शकसंवत् ६० (वि० सं० १९५)के उल्लेखानुसार दिगम्बर समाजमें आमतौरपर माना जाता है। श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें उन्हें 'सामन्तभद्र' नामसे उल्लेखित किया है और उनके समयका पट्टाचायरूपमें प्रारम्भ वीरनिर्वाणसंवत् ६४३ अर्थात् वि० सं० १७३से बतलाया है । साथ ही यह भी उल्लेखित किया है कि उनके पट्टशिष्यने वीर नि० सं० ६९५ (वि० सं० २२५) २ में एक प्रतिष्ठा कराई है, जिससे उनके समयकी उत्तरावधि विक्रमकी तीसरी शताब्दीके प्रथम चरण तक पहुँच जाती है । इससे समय-सम्बन्धी दोनों सम्प्रदायोंका कथन मिल जाता है और प्रायः एक ही ठहरता है।
ऐसी वस्तुस्थितिमें पं० सुखलालजीका अपने एक दूसरे लेख 'प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर में, जो कि भारतीयविद्या के उसी अङ्क (तृतीय भाग) में प्रकाशित हुआ है, इन तीनों ग्रन्थोंके कर्ता तीन सिद्धसेनोंको एक ही सिद्धसेन बतलाते हुए यह कहना कि 'यही सिद्धसेन दिवाकर " आदि जैनतार्किक "-" जैन परम्परामें तर्कविद्याका और तर्कप्रधान संस्कृत वाङ्मयका आदि प्रणेता", "आदि जैनकवि", "आदि जैनस्तुतिकार", "आद्य जैनवादी"
और "आद्य जैनदार्शनिक" है' क्या अर्थ रखता है और कैसे सङ्गत हो सकता है ? इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। सिद्धसेनके व्यक्तित्व और इन सब विषयोंमें उनकी विद्यायोग्यता एवं प्रतिभाके प्रति बहुमान रखते हुए भी स्वामी समन्तभद्रकी पूर्वस्थिति और उनके अद्वितीय-अपूर्व साहित्यकी पहलेसे मौजूदगी में मुझे इन सब उद्गारोंका कुछ भी मूल्य मालूम नहीं होता और न पं० सुखलालजीके इन कथनोंमें कोई सार हो जान पड़ता है कि-(क) 'सिद्धसेनका सन्मति प्रकरण जैनदृष्टि और जैन मन्तव्योंको तकशैलीसे स्पष्ट करने तथा स्थापित करनेवाला जैनवाङमयमें सर्वप्रथम ग्रन्थ है' तथा (ख) स्वामी समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र
और युक्तयनुशासन नामक ये दो दार्शनिक स्तुतियाँ सिद्धसेनकी कृतियोंका अनुकरण हैं। तर्कादि-विषयोंमें समन्भद्रकी योग्यता और प्रतिभा किसीसे भी कम नहीं किन्तु सर्वोपरि रही है, इसीसे अकलङ्कदेव और विद्यानन्दादि-जैसे महान तार्किकों-दार्शनिकों एवं वादविशारदों आदिने उनके यशका खुला गान किया है; भगवजिनसेनने आदिपुराणमें उनके यशको कवियों, गमकों, वादियों तथा वादियोंके मस्तकपर चूड़ामणिकी तरह सुशोभित बतलाया है (इसी यशका पहली द्वात्रिंशिकाके 'तव प्रशिष्याः प्रथयन्ति यद्यशः' जैसे शब्दोंमें उल्लेख है) और साथ ही उन्हें कविब्रह्मा-कवियोंको उत्पन्न करनेवाला विधाता-लिखा है तथा उनके वचनरूपी वज्रपातसे कुमतरूपो पर्वत खण्ड-खण्ड हो गये, ऐसा उल्लेख भी किया है । और इसलिये १ देखो, हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थोंके अनुसन्धाने-विषयक डा० भाण्डारकर की सन् १८८३८४की रिपोर्ट पृ० ३२०: मिस्टर लेविस राइसकी 'इन्स्क्रिपशन्स ऐट श्रवणबेल्गोल'की प्रस्तावना और कर्णाटक
शब्दानुशासनकी भूमिका । .२ कुछ पट्टावलियों में यह समय वी०नि० सं० ५६५ अथवा विक्रमसंवत् १२५ दिया है जो किसी
गलतीका परिणाम है और मुनि कल्याणविजयने अपने द्वारा सम्पादित 'तपागच्छपट्टावली में उसके
सुधारकी सूचना की है। ३ देखो, मुनिश्री कल्याणविजयजी द्वारा सम्पादित 'तपागच्छपट्टावली' पृ० ७६-८१ । ४ विशेषके लिये देखो, 'सत्साधुस्मरण-मंगलपाठ' पृ० २५से ५१ । ।
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