Book Title: Anekant 1948 11 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 27
________________ किरण ११ ] सन्मति - सिद्धसेनाङ्क [ ४३१ लब्ध नहीं होता । इतनेपर भी प्रबन्ध-वर्णित सिद्धसेनकी कृतियोंमें उसे भी शामिल किया जाता है ! यह कितने आश्चर्य की बात है इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं । ग्रन्थकी प्रस्तावना में पं० सुखलालजी दिने, यह प्रतिपादन करते हुए कि 'उक्त प्रबन्धोंमें वे द्वात्रिंशिकाएँ भी जिनमें किसीकी स्तुति नहीं है और जो अन्य दर्शनों तथा स्वदर्शनके मन्तव्योंके निरूपण तथा समालोचनको लिये हुए हैं स्तुतिरूपमें परिगपित हैं और उन्हें दिवाकर (सिद्धसेन ) के जीवन में उनकी कृतिरूपसे स्थान मिला है,' इसे एक 'पहेली' ही बतलाया है जो स्वदर्शनका निरूपण करनेवाले और द्वात्रिंशिकाओंसे न उतरनेवाले (नीचा दर्जा न रखनेवाले) 'सन्मतिप्रकरण' को दिवाकरके जीवनवृत्तान्त और उनकी कृतियोंमें स्थान क्यों नहीं मिला । परन्तु इस पहेलीका कोई समुचित हल प्रस्तुत नहीं किया गया, प्रायः इतना कहकर ही सन्तोष धारण किया गया है कि 'सन्मतिप्रकरण यदि बत्तीस लोकपरिमाण होता तो वह प्राकृतभाषा में होते हुए भी दिवाकर के जीवनवृत्तान्तमें स्थान पाई हुई संस्कृत बत्तीसियोंके साथ में परिगणित हुए विना शायद ही रहता ।' पहेलीका यह हल कुछ भी महत्व नहीं रखता । प्रबन्धोंसे इसका कोई समर्थन नहीं होता और न इस बातका कोई पता ही चलता है। कि उपलब्ध जो द्वात्रिंशिकाएँ स्तुत्यात्मक नहीं हैं वे सब दिवाकर सिद्धसेन के जीवनवृत्तान्तमें दाखिल हो गई हैं और उन्हें भी उन्हीं सिद्धसेनकी कृतिरूपसे उनमें स्थान मिला है, जिससे उक्त प्रतिपादनका हो समर्थन होता - प्रबन्धवर्णित जीवनवृत्तान्त में उनका कहीं कोई उल्लेख ही नहीं हैं । एकमात्र प्रभावकचरितमें 'न्यायावतार' का जो असम्बद्ध, असमर्थित और असमञ्जस उल्लेख मिलता है उसपरसे उसकी गणना उस द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाके अङ्गरूपमें नहीं की जा सकती जो सब जिन स्तुतिपरक थी, वह एक जुदा ही स्वतन्त्र ग्रन्थ है जैसा कि ऊपर व्यक्त किया जा चुका है । और सन्मतिप्रकरणका बत्तीस श्लोकपरिमाण न होना भी सिद्धसेनके जीवनवृत्तान्तसे सम्बद्ध कृतियों में उसके परिगणित होनेके लिये कोई बाधक नहीं कहा जा सकता — खासकर उस हालत में जब कि चवालीस पद्यसंख्यावाले कल्याणमन्दिरस्तोत्रको उनकी कृतियोंमें परिगणित किया गया हैं और प्रभावकचरितमें इस पद्यसंख्याका स्पष्ट उल्लेख भी साथ में मौजूद है'। वास्तवमें प्रबन्धोंपर से यह ग्रन्थ उन सिद्धसेनदिवाकरकी कृति मालूम ही नहीं होता, जो वृद्धवादीके शिष्य थे और जिन्हें आगममन्थोंको संस्कृत में अनुवादित करनेका अभिप्रायमात्र व्यक्त करनेपर पारश्चिकप्रायश्चित्तके रूपमें बारह वर्ष तक श्वेताम्बर संघसे बाहर रहनेका कठोर दण्ड दिया जाना बतलाया जाता है । प्रस्तुत ग्रन्थको उन्हीं सिद्धसेनकी कृति बतलाना, यह सब बादकी कल्पना और योजना ही जान पड़ती है । पं> सुखलालजीने प्रस्तावना में कथा अन्यत्र भी द्वात्रिंशिकाओं, न्यायावतार और सन्मतिसूत्रका एककर्तृ त्व प्रतिपादन करने के लिये कोई खास हेतु प्रस्तुत नहीं किया, जिससे इन सब कृतियोंको एक ही आचार्यकृत माना जा सके, प्रस्तावना में केवल इतना ही लिख दिया है कि 'इन सबके पीछे रहा हुआ प्रतिभाका समान तत्त्व ऐसा माननेके लिये ललचाता है कि ये सब कृतियाँ किसी एक ही प्रतिभाके फल हैं।' यह सब कोई समर्थ युक्तिवाद न होकर एक प्रकारसे अपनी मान्यताका प्रकाशनमात्र हैं; क्योंकि इन सभी ग्रन्थोंपर से प्रतिभाका ऐसा कोई असाधारण समान तत्त्व उपलब्ध नहीं होता जिसका अन्यत्र कहीं भी दर्शन न होता हो । स्वामी समन्तभद्रके मात्र स्वयम्भू स्तोत्र और आप्तमीमांसा ग्रन्थों के साथ इन ग्रन्थोंकी तुलना करते हुए स्वयं प्रस्तावनालेखकोंने दोनोंमें 'पुष्कल साम्य' का होना स्वीकार किया १ ततश्चतुश्चत्वारिंशद्वृत्तां स्तुतिमसौ जगौ । कल्याणमन्दिरेत्यादिविख्यातां जिनशासने ॥१४४॥ - वृद्धवादिप्रबन्ध प्र० १०१ । Jain Education International www.jainelibrary.org

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