Book Title: Anekant 1948 11 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 26
________________ ४३० अनकान्त कितनी और कौन स्तुतिरूप हैं और कौन कौन स्तुतिरूप नहीं हैं' और इस तरह सभी प्रबन्धरचयिता आचार्योंको ऐसी मोटी भूलके शिकार बतलाना कुछ भी जीको लगने वाली बात . मालूम नहीं होती । उसे उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंकी सङ्गति बिठलानेका प्रयत्नमात्र ही कहा जा सकता है, जो निराधार होनेसे समुचित प्रतीत नहीं होता । द्वात्रिंशिकाओं की इस सारी छान-बीनपरसे निम्न बातें फलित होती हैं— १. द्वात्रिंशिकाएँ जिस क्रमसे छपी हैं उसी क्रमसे निर्मित नहीं हुई हैं । २. उपलब्ध २१ द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेनके द्वारा निर्मित हुई मालूम नहीं होतीं । ३. न्यायावतारकी गणना प्रबन्धोल्लिखित द्वात्रिंशिकाओं में नहीं की जा सकती । ४. द्वात्रिंशिकाओंकी संख्या में जो घट-बढ़ पाई जाती है वह रचनाके बाद हुई है उसमें कुछ ऐसी घट-बढ़ भी शामिल है जो कि किसीके द्वारा जान-बूझकर अपने किसी प्रयोजनके लिये की गई हो। ऐसी द्वात्रिंशिकाओं का पूर्ण रूप अभी अनिश्चित है । ५. उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंका प्रबन्धों में वर्णित द्वात्रिंशिकाओंके साथ, जो सब स्तुत्यात्मक हैं और प्रायः एक ही स्तुतिग्रन्थ 'द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका' की अङ्ग जान पड़ती हैं, सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता । दोनों एक दूसरेसे भिन्न तथा भिन्नकट के प्रतीत होती हैं । ऐसी हालत में किसी द्वात्रिंशिकाका कोई वाक्य यदि कहीं उद्धृत मिलता है तो उसे उसी द्वात्रिंशिका तथा उसके कर्ता तक ही सीमित समझना चाहिये, शेष द्वात्रिंशिकाओं में से किसी दूसरी द्वात्रिंशिकाके विषयके साथ उसे जोड़कर उसपरसे कोई दूसरी बात उस वक्त तक फलित नहीं की जानी चाहिये जब तक कि यह साबित न कर दिया जाय कि वह दूसरी द्वात्रिंशिका भी उसी द्वात्रिंशिकाकार की कृति है । अस्तु । अब देखना यह है कि इन द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतारमेंसे कौन-सी रचना सन्मति सूत्रके कर्ता सिद्धसेन आचार्यकी कृति है अथवा हो सकती है ? इस विषय में पण्डित सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने अपनी प्रस्तावना में यह प्रतिपादन किया है कि २१वीं द्वात्रिंशिका को छोड़कर शेष २० द्वात्रिंशिकाएँ, न्यायावतार और सन्मति ये सब एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ हैं और ये सिद्धसेन वे हैं जो उक्त श्वेताम्बरीय प्रबन्धोंके अनुसार वृद्धवादीके शिष्य थे और 'दिवाकर' नामके साथ प्रसिद्धिको प्राप्त हैं । दूसरे श्वेताम्बर विद्वानोंका विना किसी जाँच-पड़तालके अनुसरण करनेवाले कितने ही जैनेतर विद्वानों की भी ऐसी ही मान्यता है और यह मान्यता ही उस सारी भूल-भ्रान्तिका मूल है जिसके कारण सिद्धसेन - विषयक जो भी परिचय - लेख अब तक लिखे गये वे सब प्रायः खिचड़ी बने हुए हैं, कितनी ही गलतफहमियोंको फैला रहे हैं और उनके द्वारा सिद्धसेन के समयादिकका ठीक निर्णय नहीं हो पाता । इसी मान्यता को लेकर विद्वद्वर पण्डित सुखलाल - rint स्थिति सिद्धसेन के समय - सम्बन्धमें बरावर डाँवाडोल चली जाती है। आप प्रस्तुत सिद्धसेनका समय कभी विक्रमकी छठी शताब्दीसे पूर्व ५वीं शताब्दी' बतलाते हैं, कभी छठी शताब्दीका भी उत्तरवर्ती समय कह डालते हैं, कभी सन्दिग्धरूपमें छठी या सातवीं शताब्दी निर्दिष्ट करते हैं और कभी पूवीं तथा छठी शताब्दीका मध्यवर्तीकाल प्रतिपादन करते हैं । और बड़ी मज़ेकी बात यह है कि जिन प्रबन्धोंके आधारपर सिद्धसेनदिवाकर का परिचय दिया जाता है उनमें 'न्यायावतार' का नाम तो किसी तरह एक प्रबन्धमें पाया भी जाता है परन्तु सिद्धसेनकी कृतिरूपमें सन्मतिसूत्रका कोई उल्लेख कहीं भी उप Jain Education Internationa १ सन्मति प्रकरण - प्रस्तावना पृ० ३६, ४३, ६४, ६४ । २ ज्ञानविन्दु परिचय पृ० ६ । ३ सन्मतिप्रकरणके अंग्रेजी संस्करणका फोरवर्ड (Foreword) और भारतीयविद्या में प्रकाशित 'श्रीसिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नामक लेख - भा० वि० तृतीय भाग पृ० १५२ । For Personal www.jainelibrary.org

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