Book Title: Anekant 1948 11 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 25
________________ किरण ११ ] सन्मति - सिद्धसेनाङ्क [ ४२६ व है । और फिर 'न्यायावतारंसूत्रं च' इत्यादि श्लोकद्वारा ३२ कृतियोंकी और सूचना की गई है, जिनमें से एक न्यायावतारसूत्र, दूसरी श्रीवीरस्तुति और ३० बत्तीस बत्तीस दूसरी स्तुतियाँ हैं । प्रवन्धचिन्तामणिके अनुसार स्तुतिका प्रारम्भ"प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताऽभयप्रदम् । 1 मांगल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥" इस लोकसे होता है, जिसके अनन्तर " इति द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता” लिखकर यह सूचित किया गया है कि वह द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका स्तुतिका प्रथम श्लोक है । इस लोक तथा उक्त चारों श्लोकोंमेंसे किसीसे भी प्रस्तुत द्वात्रिंशिकाओंका प्रारम्भ नहीं होता है, न ये किसी द्वात्रिंशिकामें पाये जाते हैं और न इनके साहित्यका उपलब्ध प्रथम २० द्वात्रिंशिकाओं के साहित्यके साथ कोई मेल ही खाता है । ऐसी हालत में इन दोनों प्रबन्धों तथा लिखित पद्यप्रबन्धमें उल्लेखित द्वात्रिशिका स्तुतियाँ उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं से भिन्न कोई दूसरी ही होनी चाहियें। प्रभावकचरित के उल्लेखपरसे इसका और भी समर्थन होता है; क्योंकि उसमें ‘श्रीवीरस्तुति' के बाद जिन ३० द्वात्रिंशिकाओंको "अन्याः स्तुतिः” लिखा है। श्रीवरसे भिन्न दूसरे ही तीर्थङ्करादिकी स्तुतियाँ जान पड़ती हैं और इसलिये उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंके प्रथम ग्रूप द्वात्रिंशिकापञ्चक में उनका समावेश नहीं किया जा सकता, जिस की प्रत्येक द्वात्रिंशिका श्रीवीर भगवानसे ही सम्बन्ध रखती है । उक्त तीनों प्रबन्धोंके बाद बने हुए विविधतीर्थकल्प और प्रबन्धकोश (चतुर्विंशतिप्रबन्ध ) में स्तुतिका प्रारम्भ 'स्वयंभुवं भूतसहस्रनेत्रं' इत्यादि पद्यसे होता है, जो उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंके प्रथम ग्रूपका प्रथम पद्य है, इसे देकर " इत्यादि श्रीवीरद्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता” ऐसा लिखा है । यह पद्य प्रबन्धवर्णित द्वात्रिंशिकाओंका सम्बन्ध उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंके साथ जोड़नेके लिये बादको अपनाया गया मालूम होता है; क्योंकि एक तो पूर्वरचित प्रबन्धोंसे इसका कोई समर्थन नहीं होता, और उक्त तीनों प्रबन्धोंसे इसका स्पष्ट विरोध पाया जाता है । दूसरे, इन दोनों . प्रन्थोंमें द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाको एकमात्र श्रीवीरसे सम्बन्धित किया गया है और उसका विषय भी "देवं स्तोतुमुपचक्रमे” शब्दोंके द्वारा 'स्तुति' ही बतलाया गया है; परन्तु उस स्तुतिको पढ़नेसे शिवलिङ्गका विस्फोट होकर उसमेंसे वीरभगवानकी प्रतिमाका प्रादुर्भूत होना किसी ग्रन्थमें भी प्रकट नहीं किया गया - विविधतीर्थकल्पका कर्ता आदिनाथकी और प्रबन्धकोशकाकर्ता पार्श्वनाथकी प्रतिमा प्रकट होना बतलाता है । और यह एक असङ्गत-सी बात जान पड़ती है कि स्तुति तो किसी तीर्थङ्करकी की जाय और उसे करते हुए प्रतिमा किसी दूसरे ही तीर्थङ्करी प्रकट होवे । Jain Education International इस तरह भी उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं में उक्त १४ द्वात्रिंशिकाएँ जो स्तुतिविषय तथा वीरकी स्तुति से सम्बन्ध नहीं रखतीं, प्रबन्धवर्णित द्वात्रिंशिकाओं में परिगणित नहीं की जा सकतीं। और इसलिये पं० सुखलालजी तथा पं० बेचरदासजीका प्रस्तावना में यह लिखना कि 'शुरुआत में दिवाकर ( सिद्धसेन ) के जीवनवृत्तान्त में स्तुत्यात्मक बत्तीसियों (द्वात्रिंशिका) को ही स्थान देने की जरूरत मालूम हुई और इनके सार्थमें संस्कृत भाषा तथा पद्य - संख्या में समानता रखनेवाली परन्तु स्तुत्यात्मक नहीं ऐसी दूसरी घनी बत्तीसियाँ इनके जीवनवृत्तान्तमें स्तुत्यात्मक कृतिरूपमें ही दाखिल होगईं और पीछे किसीने इस हकीकतको देखा तथा खोजा ही नहीं कि कही जानेवाली बत्तीस अथवा उपलब्ध इक्कीस बत्तीसियों में नो वाद्भुतमुलुकस्य प्रकृत्या क्लिष्टचेतसः । स्वच्छा अपि तमस्त्वेन भासन्ते भास्वतः कराः ॥ १४२ ॥ लिखित पद्मप्रबन्धमें भी ये ही चारों लोक 'तस्थाययस्स तेणं पारद्धा जिणथुइ' इत्यादि पद्यके www.jainelibrary.org

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