Book Title: Anekant 1948 11 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 28
________________ अनेकान्त ४३२ ] [ वर्ष ह है और दोनों श्रचायकी प्रन्थनिर्माणादि विषयक प्रतिभाका कितना ही चित्रण किया है। और भी अलङ्क-विद्यानन्दादि कितने ही आचार्य ऐसे हैं जिनकी प्रतिभा इन ग्रन्थोंके पीछे रहनेवाली प्रतिभासे कम नहीं है, तब प्रतिभाकी समानता ऐसी कोई बात नहीं रह जाती जिसकी अन्यत्र उपलब्धि न हो सके और इसलिये एकमात्र उसके आधारपर इन सब ग्रन्थोंको, जिनके प्रतिपादनमें परस्पर कितनी ही विभिन्नताएँ पाई जाती हैं, एक ही आचार्यकृत नहीं कहा जा सकता । जान पड़ता है समानप्रतिभा के उक्त लालच में पड़कर ही बिना किसी गहरी जाँच-पड़ताल के इन सब ग्रन्थोंको एक ही आचार्यकृत मान लिया गया है; अथवा किसी साम्प्रदायिक मान्यताको प्रश्रय दिया गया है जबकि वस्तुस्थिति वैसी मालूम नहीं होती । गम्भीर गवेषणा और इन ग्रन्थोंकी अन्तःपरीक्षादिपरसे मुझे इस बातका पता चला है कि सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन अनेक द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनसे भिन्न हैं । यदि २१वीं द्वात्रिंशिका को छोड़कर शेष २० द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ हों तो वे उनमें से किसी भी द्वात्रिंशिका के कर्ता नहीं हैं, अन्यथा कुछ द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता हो सकते हैं । न्यायातारके कर्ता सिद्धसेनकी भी ऐसी ही स्थिति है वे सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेनसे जहाँ भिन्न हैं। वहाँ कुछ द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेनसे भी भिन्न हैं और उक्त २० द्वात्रिंशिकाएँ यदि एक अधिक सिद्धसेनोंकी कृतियाँ हों तो वे उनमें से कुछ के कर्ता हो सकते हैं, अन्यथा किसी भी कर्ता नहीं बन सकते । इस तरह सन्मतिसूत्रके कर्ता, न्यायावतारके कर्ता और कतिपय द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता तीन सिद्धसेन अलग अलग हैं- शेष द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता इन्हीं में से कोई एक या दो अथवा तीनों हो सकते हैं और यह भी हो सकता है कि किसी द्वात्रिंशिका के कर्ता इन तीनोंसे भिन्न कोई अन्य ही हों। इन तीनों सिद्धसेनोंका अस्तित्वकाल एक दूसरे से भिन्न अथवा कुछ अन्तरालको लिये हुए है और उनमें प्रथम सिद्धसेन कतिपय द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता, द्वितीय सिद्धसेन सन्मतिसूत्रके कर्ता और तृतीय सिद्धसेन न्यायावतार के कर्ता हैं । नीचे अपने अनुसन्धान-विषयक इन्हीं सब बातोंको संक्षेपमें स्पष्ट करके बतलाया जाता है: (१) सन्मतिसूत्रके द्वितीय काण्डमें केवलीके ज्ञान दर्शन - उपयोगोंकी क्रमवादिता और युगपद्वादितामें दोष दिखाते हुए अभेदवादिता अथवा एकोपयोगवादिताका स्थापन किया है । साथ ही ज्ञानावरण और दर्शनावरणका युगपत् क्षय मानते हुए भी यह बतलाया है कि दो उपयोग एक साथ कहीं नहीं होते और केवली में वे क्रमशः भी नहीं होते । इन ज्ञान और दर्शन उपयोगोंका भेद मन:पर्ययज्ञान पर्यन्त अथवा छद्मस्थावस्था तक ही चलता है, केवलज्ञान होजानेपर दोनोंमें कोई भेद नहीं रहता - तुब ज्ञान कहो अथवा दर्शन एक ही बात है, दोनोंमें कोई विषय-भेद चरितार्थ नहीं होता। इसके लिये अथवा आगमग्रन्थोंसे अपने इस कथकी सङ्गति बिठलानेके लिये दर्शनकी 'अर्थविशेषरहित निराकार सामान्यग्रहरणरूप' जो परिभाषा है उसे भी बदल कर रक्खा है अर्थात् यह प्रतिपादन किया है कि पृष्ट तथा विषयरूप पदार्थ में अनुमानज्ञानको छोड़कर जो ज्ञान होता है वह दर्शन है।' इस विषय से सम्बन्ध रखनेवाली कुछ गाथाएँ नमूनेके तौरपर इस प्रकार हैं: Jain Education International मरणपञ्जवरणातो खाणस्स दरिसणस्स य विसेसो । केवलराणं पुण दंसणं ति गाणं ति य समाणं ॥ ३ ॥ ईति 'जइया जाइ तइया गं पासइ जिणो' त्ति । सुत्तमवलंब मारणा तित्थयरासायणाभीरू ॥ ४ ॥ www.jainelibrary.org

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