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सौम और विनीत की बुद्धि स्थिर : १
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सात्त्विकी बुद्धि : स्थिर और प्रकाशक सात्विकी बुद्धि वाला व्यक्ति यह जानता है कि कौन-सा कार्य धर्म है और कौन-सा अधर्म ? यह अहंकार, अविनय, क्रोध, मोह, स्वर्थ आदि प्रचण्ड विकारों से दूर रहता है, इस कारण उसकी बुद्धि यह जान लेती है कि मुझे किस कार्य में प्रवृत्त होना है, और किस कार्य से निवृत्त रहना है, दूर रहना है। साथ ही अपने कर्तव्य-अकर्तव्य एवं हिताहित का भी भान रहता है। वह कभी अहंकार के नशे में डूबा नहीं रहता और न ही द्वेष और रोष की आग में जलता है। सात्त्विक बुद्धि स्थिर और प्रकाश से ओतप्रोत रहती है। वह शुद्धबुद्धि होती है। चंचलबुद्धि से बनता हुआ कार्य बिगड़ जाता है, जबकि सद्बुद्धि या स्थिरबुद्धि से बिगड़ा हुआ एवं बिगड़ता हुआ कार्य सुधर जाता है।
एक सेठ का लड़का एक जूआरी लड़के की सोहबत से पक्का जुआरी बन गया। उसे जुए का दुर्व्यसन इतनी बुरी तरह लग गया था कि एक दिन भी जुआ खेलने बिना नहीं रह सकता था। उसने जुए में अपने पिता की बहुत-सी सम्पत्ति फूंक दी। सेठ चाहता था कि किसी तरह दोनों की दोस्ती टूट जाए तो अच्छा। उसने अपनी ओर से लड़के को समझाने-बुझाने का पूरा प्रयल किया, लेकिन सा व्यर्थ। आखिर असफल और बेचैन सेठ वहाँ के दीवान के पास पहुँचा और अपनी सारी व्यथा कथा सुनाई। दीवान सात्त्विक बुद्धि वाला और सूझबूझ का धनी व्यक्ति था। दीवान ने सेठ से कहा-"आप चिन्ता न करिये। मैं आज आपकी दूकान पर आकर उन दोनों की मित्रता तुड़वा दूंगा। आप एक काम करिये। आज मैं न आ जाऊँ, तब तक आप उन दोनों मित्रों को दुकान पर विठाये रखिये।"
निश्चित समय पर दीवानजी दूकान पर पहुँच गये। वहाँ बैठे दोनों मित्रों में से एक को उन्होंने इशारे से अपने पास बुलाया और ओंठ हिलाते हुए हाथो से ऐसी चेष्टाएँ की मानो कुछ कह रहे हों। यों करके दीवानजी झाटपट चले गये। दोनों मित्र परस्पर मिले। सेठजी के लड़के से जुआरी लड़के ने पूछा-दीवानजी तुम्हें क्या कह रहे थे ?" सेठ के लड़के ने कहा- ''कुछ भी तो नहीं कहा । वे तो मेरे कान के पास मुँह लगाकर सिर्फ होंठ हिला रहे थे।" इस पर जुआरी मित्र ने कहा- "तू मुझसे बात छिपाता है। अवश्य ही दीवानजी ने तुझे कुछ कहा था। वस, आज से तुम्हारी और मेरी दोस्ती खत्म ! मैं ऐसा दुर्व्यवहार नहीं सह सकता।" आखिर दोनों बत मित्रता टूट गई। दीवानजी की सात्त्विक बुद्धि ने काम कर दिया। सात्त्विक बुद्धि का बनी ही ऐमी अटपटी समस्याओं को नैतिक तरीकों से सुलझा सकता है।
भारत के एक मूर्धन्य मनीषी ऐसी शुद्धबुद्धि के विषय में कहते हैंश्रियः प्रसूते, विपदो रुणद्धि, यांसि दुग्धे, मलिनं प्रमार्टि।
संस्कारशौघपरं पुनीते, शुद्धा हि बुद्धिः किल कामधेनु ।।
शुद्धबुद्धि वास्तव में कामधेनु है । वह कक्ष्मी को उत्पन्न करती अथवा प्रत्येक कार्य की शोभा बढ़ा देती है, प्रत्येक कार्य में आने वाली विपत्तियों को रोक देती है, यशरूपी