Book Title: Anand Pravachana Part 9
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 382
________________ विक्षिप्तचित्त कोकहना : विलाप ३७५ एक दृष्टान्त लीजिए एक चोर किसी संत के पास जाया करता था और प्रतिदिन वह उनसे ईश्वर-दर्शन एवं आत्म-साक्षात्कार का उपाय पूछा | महात्मा ने सामने वाली पर्वत की ऊंची चोटी की ओर इशारा करते हुए कहा --''यदि तुम मेरे साथ वहां तक ६ पत्थर सिर पर रखकर चल सको तो वहां पहुंचकर मैं तुम्हें दोनों के उपाय बता सकता हूं।' चोर तैयार हो गया। महात्मा ने उसके सिर पर पत्थर रख दिए और पीछे-पीछे चले आने को कहकर स्वयं आगे चलने लगे। चोर वृछ ही दूर चल कर हांफने लगा, उसने कहा-"महात्मा जी बोझ बहुत है। इस भार को लेकर मैं आगे नहीं चल सकता।" संत ने एक पत्थर उतार दिया। चोर फिर कुछ दूर चला कि लड़खड़ाने लगा, तब महात्मा ने एक पत्थर और उतार दिया। यही कम आगे भी चला। यों अन्त में सभी पत्थर उतार देने पड़े तब कहीं चोटी तक साथ फलने में वह समर्थ हो सका। चोटी पर पहुंचकर संत ने कहा-"जिस प्रकार तुम ६ पत्थर सिर पर रखकर इस पर्वत की चोटी तक पहुंच सकने में असमर्थ रहे, उसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर इन ६ मनोविकार रूप पाषाणों का कोझ ढोता हुआ विक्षिप्तचित्त व्यक्ति परमात्म-दर्शन और आत्मसाक्षात्कार करने में सफल नहीं हो सकता। यदि इन तक पहुंचना हो तो पाप विकारों के पत्थर अपने चित्तासे उतार कर फैंकने ही होंगे।" वास्तव में देखा जाए तो विक्षिप्तचित्त का मतलब ही है—पापभाराक्रान्त चित्त। कुत्ते का चित्त भी उस पापभाराक्रान्त व्यक्ति से अच्छा है। एक बार किसी सभा में यह चर्चा चल पड़ी कि मनुष्य श्रेष्ठ है या कुत्ता ? दिलसी ने कहा- "मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। क्योंकि वह सबको वश में कर लेता है।।" किसी ने कहा- "कुत्तों का संयम मनुष्यों से कई गुना अच्छा होता है, इसलिए मनुष्य कुत्ते से भी नीच है।" इस विवाद के निर्णायक थे-'हुसैन ।' हुसैन ने कहा—जब तक मैं अपना चित्त एवं जीवन पवित्र कार्यों में लगाये रखता हूं, तब तक मैं देनों के करीब हूं, किन्तु जब मेरा चित्त एवं जीयन पाप के भार से दब जाता है, तब कुते भी मुझ जैसे हजार हुसैनों से अच्छे होते हैं।" धन्धुओं। आप समझ गये होंगे कि विसप्तचित्त में उपदेश या तत्वज्ञान का बोध क्यों नहीं टिक पाता? दूध फट जाने पर उसमें कितना ही जाम्म डालिए, दही नहीं जमेगा, या उसे कितना ही मधिये, मक्खन नहीं निकलेगा, इसी प्रकार चित्त के बिखर जाने या उसके परमाणुओं के बिखर जाने, या उसके अस्थिर हे जाने पर, उसमें कितने ही तत्त्वज्ञान के शब्द डालिए, वे टिकेंगे नहीं, उनमें से कुछ ही सार नहीं निकलेगा, वह बेकार का प्रलाप होगा, महर्षि गौतम के शब्दों में।

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