Book Title: Anand Pravachana Part 9
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 385
________________ ३७८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ जब मनुष्य पर दुःख, विपत्ति, परेशानी या संकट आता है तो वह घबराकर धैर्य छोड़ बैठता है, मन ही मन परेशान, हैदान होकर कुल्ता और घुटता रहता है, या चिन्ता करता रहता है। यही चित के विक्षिप्त होने का प्रथम कारण है। जब इस प्रकार चित्त विक्षिप्त या व्याकुल होता है तो वह सारी शक्तियों को कुण्ठित और नष्ट कर देता है। वैसे देखा जाए तो सुख और दुख, सम्पत्ति और विपत्ति, या संकट और आनन्द का कोई अलग स्थायी अस्तित्व नहीं है। इनका उदय स्थल मनुष्य का अपना चित्त ही है। चित्त प्रसन्न होता है, आशापूर्ण और प्रफुल्ल होता है तो संसार में चारों ओर सुख, आनन्द और उत्साह दिखाई देता है, जब वह विषाद, निराशा या चिन्ता से घिरा रहता है तो प्रत्येक दिशा में दुख और संकट ही दृष्टिगोचर होते हैं। मनुष्य अपने चित्त में ही आशंकाओं से दुखों और संकटों की कल्पना करता है। क्योंकि प्रत्येक अनुभूति का केन्द्र मनुष्य का अपना चित्त है। अतः जो व्यकि आई हुई विपत्तियों और दुखों को अपने चित्त पर हावी न होने देकर शान्तचित्त और स्थिरबुद्धि से उनके निराकरण का प्रयत्न करता है, वह उन्हें शीघ्र ही दूर भगा देता है, उसका चित्त विक्षिप्त होने से बच जाता है, उसके चित्त की अद्भुत एवं गुप्त शक्तियां विनष्ट होने से बच जाती हैं। जो व्यक्ति विपत्ति या संकट की संभावान से या उनके आने पर घबराकर अशान्त या उद्विग्न हो जाता है, वह अपने चित को विक्षिप्त एवं व्यग्र कर लेता है, उसके भाग्य से जीवन के सारे सुख उठ जाते हैं, विकास और उन्नति की सारी संभावनाएं नष्ट हो जाती हैं, विषाद और निराशा, कुढ़न और खीज उसे रोग की तरह घेर लेती हैं। न उसे भोजन भाता है, न नींद आती है, न किसी के साथ वह उदारता का व्यवहार करता है, ऐसे विक्षिप्तचित्त व्यक्ति को क्या उसके हित की बातें सुहा सकती हैं ? क्या वह तत्त्वज्ञान के बोध को दिमाग में सजाकर रख सकता है ? कदापि नहीं। इसलिए उचित यही है कि चित्त को विक्षिा होने से बचाने के लिए विपत्ति और संकट के समय उद्विग्न और अशान्त न होकर धैर्यपूर्वक काम किया जाए, और चित्त की शक्तियों को नष्ट होने से बचाया जाए। दूसरी ओर चित्त की विक्षिप्तता से बचाने के लिए शक्ति का उत्पादन शिथिल न होने दें। बड़े-बड़े कल कारखानों में अनेकों मशीनें लगी रहती हैं और उनसे भारी उत्पादन होता रहता है। मगर उनको उत्पादन-शक्ति का केन्द्र बह इंजन या मोटर होता है, जो इन सारे यंत्रों को चलाने के लिए शक्ति स्त्पन्न करता है। अगर वह इंजन या मोटर शक्ति उत्पन्न करना बंद या कम करदे तो यं यंत्र ठप्प हो जाते हैं, उनसे उत्पादन पर्याप्त नहीं हो पाता। यही हाल हमारे चित्त के मंत्र का है, उसके उत्पादन का केन्द्र चित्त की एकाग्रशक्ति है। अगर चित्त की एकाग्रशक्ति ठीक काम करे तो चित्त में शक्ति का उत्पादन

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