Book Title: Anand Pravachana Part 9
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

View full book text
Previous | Next

Page 402
________________ कुशिष्पों को बहुत कहना भी विलाप ३६५ उसे चारों ओर से घेर लिया। वनवासी सेना के बाणों से घबराकर राजा देवपाल सहायता के लिए सिद्धसेन की शरण में थे। उनसे उपाय पूछा। उन्होंने राजा को बहुत आश्वासन दिया और इसका प्रतीकार करने का वचन भी । सिद्धसेन ने स्वर्ण सिद्धि योग से विपुल द्रव्यराशि और सरसवत्र से विशाल सेना की सृष्टि की। उसकी सहायता से राजा देवपाल ने विजयवर्मा वता पराजित कर दिया। देवपाल ने प्रसन्न होकर आचार्य सिद्धसेन को 'दिवाकर' पदवी प्रदान की। राजसभा में उनकी प्रतिष्ठा की। उनकी सेना में हाथी, घोड़े, पालकी आदि राजा की ओर से भेजे जाने लगे, सिद्धसेन भी इनका उपयोग खुलकर करने लगी। आचार्य वृद्धवादी (गुरु) को जब यह मालूम पड़ा कि सिद्धसेन अपनी साधु-मर्यादा का अतिक्रमण कर रहे हैं, तब उन्हें प्रतिबोध देने के लिए वे वेष बदलकर कर्मारनगर पहुंचे। उन्होंने सिद्धसेन को पातकी में बैठकर जाते हुए अपनी आँखों से देखा। पालकी राजमार्ग से होकर जा रही थी। अनेक लोग उन्हें घेरकर जयध्वनि कर रहे थे। तब वृद्धवादी ने सामने जाकर कला- "मैंने आपकी ख्याति बहुत सुनी है, अतः मेरा एक संशय है, क्या आप उसे दूर करेंगे ?" सिद्धसेन ने कहा- हाँ हाँ, क्यों नहीं, आपका जो भी संशय हो पूछिए।" इस पर आचार्य वृद्धवादी ने शीघ्र ही एक गाआ अपभ्रंश भाषा में रचकर उनके समक्ष प्रस्तुत की अणफुल्लो फुल्ल म तोडहू, मन आरामा म मोडहु । मणकुसुमेहिं अच्चि निरंजणु, हिंडडु काहं वणेण वणु सिद्धसेन ने इस गाथा पर विचार किरण, परन्तु ठीक अर्थ समझ में नहीं आया । अतः उन्होंने ऊटपटांग अर्थ करके कहा - 'और कुछ पूछिए।" वृद्धवादी ने कहा - "इसी पर पुन: विचार करके उत्तर दीजिए।" सिद्धसेन ने निरादरपूर्वक अंटसेट अर्थ किया, लेकिन वृद्धवादी ने उसे स्वीकार नहीं किया। तब सिद्धसेन ने आचार्य बृद्धवादी को ही उसका स्पष्टीकरण करने को कहा। इस पर आचार्य वृद्धवादी ने उत्तर दिया- "यह मगाव देह जीवनरूपी कोमल फूलों की लता है। इसके जीवनांशरूप कोमल अर्ध-विकसित फूलों को तुम राजसम्मान एवं तज्जन्य अभिमान के प्रहारों से मत तोड़ो। मन के यमनियमादि आरामों (उद्यानों) को भोगविलास (आराम) के द्वारा नष्ट-भ्रष्ट न करो। मन के सद्गुण- पुष्पों द्वारा निरंजन भगवान की अर्चना (पूजा) करो। सांसारिक लोभरूपी मोहवन में वृथा क्यों भटक रहे हो ?" गाथा का यह समुचित अर्थ सुनकर सिद्धसेन ने सोचा----"यह गाथा तो मुझ पर ही घटित हो रही है । मेरी भूलों को इस प्रकार कोमलकान्त पदावली से सुझाने वाले और मेरी त्रुटियों की भर्त्सना करने वाले हितैषी सद्गुरु के सिवाय और कौन हो सकते हैं ?"

Loading...

Page Navigation
1 ... 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415