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कुणियों को बहुत कहना भी विलाप ४०३ राजा ने उनके शरीर रोगग्रस्त देखकर यथोचित उपचार के लिए अपने यहां रुकने का सविनय आग्रह किया। वे अत्याग्रहवश रुक गए। वैद्यकीय उपचार से उनका शरीर स्वस्थ हो गया । किन्तु पूर्व परिचित लोगों के श्रद्धाभक्तिवश स्वादिष्ट एवं गरिष्ठ खानपान ग्रहण करने से उन्हें स्वादलोलुपता का रोग लग गया, जिस पर मंडूक राजा तथा अन्य राजकर्मचारियों एवं पौरजनों का विनय, भक्ति श्रद्धा का अतिरेक एवं रुकने का आग्रह | अतः शैलक राजर्षि वहां अच्छी तरह जम गए।
शिष्यों के बारंबार अनुरोध पर भी वे विहार करने का नाम ही न लेते थे । उनके ४६६ शिष्यों को गुरुदेव की यह मनोदशा संयमोचित न लगी। परन्तु अपने मार्गदर्शक गुरु को प्रबोध कैसे दें ? इसलिए विवश होकर उनसे आज्ञा प्राप्त करके ४६६ शिष्य तो अन्यत्र विहार कर गये। सिर्फ एक धैर्यधारी, गुरु के प्रति सर्वस्व समर्पणकर्ता, अनन्यभक्ति शिष्य पन्थक उनकी सेवा में रहा। पन्थक गुरु की सेवा अम्लानभाव से करता रहा। उसे दृढ विश्वास था कि गुरुजी एक न एक दिन अवश्य ही प्रबुद्ध होंगे। यह असंयम दशा स्थार्य नही रहेगी, इनकी आत्मा स्वतः जागृत होगी। धैर्य और आत्म-समर्पण ही सुप्रिष्य के धर्म हैं। यों सोचकर पन्थक समभावपूर्वक अपनी साधना में रत था ।
कई चातुर्मास व्यतीत हो गए। एक दिन कार्तिक पूर्णिमा थी, चातुर्मास की पूर्णाहुति का दिन था । पन्थक मुनि ने दैनिक एवं चातुर्मासिक समस्त सूक्ष्ण-स्थूल प्रवृत्तियों में लगे हुए पाप-दोषों के आलोचन, प्रतिक्रमण पश्चात्ताप एवं प्रायश्चित स्वरूप प्रति क्रमण (आवश्यक) तो आज्ञा लेने और गुरुदेव की चातुर्मासिक सम्बन्धी अविनय, आशातना सम्बन्धी अपारधों की क्षमा याचना करने हेतु चरणों में अपना मस्तक झुकाया ।
गरिष्ठ एवं प्रमादक खानपान लेने से गुरुजी को सन्ध्या समय से ही गुलाबी नींद की झपकी आ रही थी। उसमें एकाएक खलल पड़ने से वे चौंके और डांटने लगे- "अरे ! कौन दुष्ट, पापी है यह, जिस मेरी नींद उड़ा दी ?"]
पंथक मुनि सुनकर शांति और गंभीरता से बोले – “भगवन् ! यह मैं हूं आपका शिष्य पन्थक। आज चातुर्मासिक समाप्ति के प्रतिक्रमण की आज्ञा लेने और वन्दना क्षमापना करने हेतु मैं आया था, मेरा मस्तक आपके पवित्र चरणों में झुकाते हुए छू गया प्रभो ! इसी कारण आपकी निद्रा भंग गई। क्षमा करें, प्रभो । क्षमा ।" पन्थक के प्रत्येक वचन में नम्रता, सरलता, और मृदुता भरी थी ।
इस प्रकार नम्रता से निवेदन का परिणाम अच्छा ही हुआ। पन्थक की सुशिष्य आज पूर्ण हुई। गुरुदेव की आत्मा जागी । चरणस्पर्श से तो घोर निद्रित मन जागा, पर शब्द स्पर्श से उनकी अन्तरात्मा जाग उठी। मन्थन चला - "कहाँ दीक्षा के समय का तपस्वी शैलक और कहां आज का । रसलोलुप शैलक। कहां विषैले जन्तु के प्रति भी क्षमाशील शैलक और कहां विनयमूर्ती शिष्य पंथक को डांटने वाला शैलक ।