Book Title: Anand Pravachana Part 9
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 411
________________ ४०४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ कार्तिक पूर्णिमा की पूर्ण चांदनी आज सैलक राजर्षि के हृदयाकाश में छा.गई थी। वे पश्चात्तापमग्न हो गए। प्रेम भरी मधुर वाणी में घोले "अहो प्रिय पंथक । तुम्हारे धैर्य को धन्य है। कितनी धीरता और उदारता है तुममें कि ऐसे आचार शिथिल गुरु को भी न छोड़ा। चरणों का मस्तक से स्पर्श करने पर क्रोध करने वाले शैलक के प्रति भी "भावन् क्षमा करो', यह नम्र वचनावली। कहां तू सद्गुणों का पुंज और कहां में दोषों का भंडार । सचमुच तू ही था, जो मेरे पास अकेला टिका रहा। मेरे परमोपकारी चन्घ्रिसहायक पन्थक। तू न होता तो मेरी क्या दशा होती।" इस तरह अश्रूपूरित नेत्रों से शैलक राफर्षि ने अपना हृदयभार हलका किया। वैराग्य अब प्रबल हो उठा। एक ही झटके में हैलक राजर्षि ने प्रमाद को झाड़ दिया। प्रातःकाल होते ही विहार की भावना व्यक्तकी। पंथक भी हर्षाश्रुपूर्वक गद्गद होकर कोना-"गुरुदेव ! पंथक में जो कुछ है, वह आपका ही दिया हुआ प्रसाद है। शिष्य तां गुरु की छाया होता है। अपने उपास्य के असीम ऋण में से यत्किंचित ऋण अदा कर सका तो मैं धन्य मानूंगा। आप आशीर्वाद दें कि मैं समग्र ऋण अदा कर सतुं। आपकी कृपा से यह आत्मा संसार दावानल से बची है, इसलिए चाहता हूं, आपका निर्मल आलम्बन इस सेवक को मिलता रहे।" . सचमुच पन्थक एक आदर्श शिष्य था, उसमें शास्त्रोक्त गुणी-शिष्य कर्तव्य कूट-कूट कर भरे थे। इसी कारण वह गुरु के आत्मोत्थान में सहायक बन सका। हाँ, तो इस प्रकार विनयादि गुणों से, कठोर परीक्षा से, और गुणी शिष्य के कर्तव्यों एवं व्यवहारों से सुशिष्य की पहचान हो जाती है। कुशिष्यों को ज्ञान देना सर्प को दूध पिलाना है इसके विपरीत जो विनयादि गुणों में भी खरा न उतरे, कठोर परीक्षा में भी पास न हो और शिष्य के कर्तव्यों और व्यवहारों में पिछड़ा हो, वह शिष्य सुशिष्य नहीं माना जा सकता। यह स्पष्ट पहचान है कुशिष्य की कि वह गुरु की आज्ञा नहीं मानता, उनके निकट नहीं बैठता, उनके प्रतिकूल आचरण करता है, तथा तत्त्वज्ञान से शून्य एवं अविनीत होता है। नीतिज्ञ चाणक्य के धनब्दों में-- "वरं न शिष्यो, न कुशिष्य शिष्यः' शिष्य का न होना अच्छा है, किन्तु कुशिष्य का शिष्य होना अच्छा नहीं।" क्योंकि कुशिष्य गुरु के मन में संक्लेशा बढ़ाता है, उन्हें बदनाम कराता है, उनका शत्रु एवं द्वेषी बन जाता है। भगवान महावीर का शिष्य गौशालक कुशिष्य था, जो अपने परम गुरु से सब कुछ सीखकर, उनके उपकार को भूलकर उनका विरोधी, निन्दक एवं आलोचक बन बैठा। एक उदाहरण द्वारा इसे समझाना ठीक होगा एक कलाचार्य थे, उनके पास एक छात्र विद्याध्ययन करने को आया ।

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