Book Title: Anand Pravachana Part 9
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 407
________________ ४०० आनन्द प्रवचन : भाग ६ ___ "दुष्कृत (पापकर्म) को दूर करने वाला, गुरुजनों का उपाययुक्त अनुशासन प्राज्ञशिष्य के लिए हित का कारण होता है, जबकि असाधु पुरुष के लिए वही अनुशासन द्वेष का कारण बन जाता है। "विनीत शिष्य गुरु की शिक्षा को पुत्र, भाई या ज्ञातिजनों को दी गई हितशिक्षा के समान हितकारी मानता है, जब क पापदृष्टि अविनीत शिष्य उसी हितशिक्षा को नौकर को दी गई डांटडपट के समान खराब समझता है। "लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य ये चारों कल्याणभाजन साधु के लिए विशोधिस्थल हैं, वह मानता है कि जो गुरु मुझे इनकी सतत शिक्षा देते हैं, मैं उनकी सतत पूजाभक्ति करूँ।" | “गुरु मुझे ठोकरें (लात) मारते हैं, थप्पा लगाते हैं, मुझे कोसते हैं और पीटते हैं, इस प्रकार गुरुओं के कल्याणकारी अनुशास्म को पापदृष्टि विपरीत मानता है।" सुशिष्य की गुरु द्वारा कठोर परीक्षा देने का यह एक तरीका है। इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने पर गुरु उस शिष्य को सुशिष्य मान लेता है। स्वामी दयानन्द अपने गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्दजी की सेवा में रहकर अध्ययन और साधना करते थे। एक दिन स्वामी दयानन्द ने कमरे की सफाई करके कूडाकरकट दरवाजे के पास डाल दिया। संयोगवश उनके गुरु विरजानन्दजी कमरे से बाहर निकले तो वह सारा कूड़ा-करकट उनके पैरों मे लग गया। वे क्रुद्ध हो उठे और दयानन्दजी को खूब पीटा, जिससे उनके शरीर पर निशान पड़ गये। फिर भी स्वामी दयानन्दजी शान्त बने रहे। अपने अपराध के लिए गुरु से क्षमा मांगी। प्रसन्न होकर गुरु ने आशीर्वाद दिया। दयानन्दजी की पीठ गर मार की वह निशानी जीवन पर्यन्त बनी रही। पूछने पर स्वामी जी ने कहा करते- "यह गुरुकृपा की निशानी है।" यह था गुरु द्वारा शिष्य के 'सु' या 'यु होने का परीक्षाफल । वास्तव में जो साधक अपना कल्याण चाहता है, वह इन सुख-दुखों के द्वन्द्व में सभ रहता है, वह गुरु के द्वारा की गई कठोर पीरक्षा को अपने लिए णम हितकर समझता है। स्वामी विवेकानन्द जब तक रामकृष्ण पमहंस के शिष्य नहीं बने थे, उस समय (नरेन्द्र के रूप में थे तब) की एक घटना है—नके गुरु रामकृष्ण परमहंस का उन पर असीम स्नेह था। ऐसा होने पर भी एक बार उन्होंने 'नरेन्द्र' (विवेकानन्द) से बोलना बन्द कर दिया। जब नरेन्द्र उनके सम्मुख जात्रि, तब वे अपना मुंह दूसरी ओर मोड़ लेते। नरेन्द्र प्रतिदिन सहजभाव से उन्हें प्रणाम करते और थोड़ी देर उनके पास बैठकर लौट आते । यही क्रम कितने ही सप्ताह तप्त चलता रहा। तब एक दिन स्वामी रामकृष्ण ने उनसे पूछा- "मैं तुझसे नहीं बोला, तब भी तू प्रतिदिन आता है, क्या बात है ?" नरेन्द्र ने कहा—“ गुरुदेव ! आपके प्रेमते श्रद्धा है, इसलिए चला आता हूं। आप मुझसे बोलें या न बोलें, इससे मेरी श्रद्धा में कोई फर्क नहीं पड़ता।" यह सुनते

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