Book Title: Anand Pravachana Part 9
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

View full book text
Previous | Next

Page 406
________________ ३६६ कुशि को बहुत कहना भी विलाप की अपार वेदना देख उनमें उत्कट भक्तिधारा उमड़ पड़ी। फलतः अपने प्राणों का मोह छोड़कर एक कटोरे में फोड़े का मवाद निकालकर 'जय गुरुदेव' कहते हुए उसे गटगटा गए। जहर अमृत बन गया। जो शिष्य गुरु रामकृष्ण परमहंस को छूने से चेपी रोग लग जाने का भय खा रहे थे। वे भी वहां आ खड़े हुए और तत्काल उनकी परिचर्या में जुट पड़े। वास्तव में जिस शिष्य में गुरु के प्रति उत्कट भक्ति होती है, समर्पण भाव होता हैं, गुरु के प्रति अटूट विश्वास होता है, उसे अपने जीने-मरने, कष्ट पाने या सुख-सुविधाओं की कोई अपेक्षा नहीं होती। यह हुई सुशिष्य-कुशिष्य को पहचानने । की प्रथम विधि। दूसरी विधि है-गुरु द्वारा शिष्य की कठोर परीक्षा लेकर पहचानने को यह विधि जरा कठिन तो है, परन्तु इस विधि से परीक्षा लेने पर जो शिष्य उत्तीर्ण हो जाता है, उसे गुरु कृपा, गुरु का आशीर्वाद तथा गुरु की समस्त विद्याएं तथा प्रिक्षाएं प्राप्त होती हैं, वह जगत् में सुशिष्य के नाम से स्वतः विख्यात हो जाता है। गुरु जब अपने शिष्य की कठोर वचनों से, ठोकरें मारकर, चांटा लगाकर, कोसकर या पीटकर परीक्षा लेते हैं, उस समय सुशिष्य अपने लिए परम लाभ हित-शासन और कल्याणमय अनुशासन मानता है, जबकि कुशिष्य हितैषी गुरु को द्वेषी पक्षपाती और शत्रु मानता है। देखिए इस सम्बन्ध में शास्त्रीय चिन्तन– जं मे बुद्धाणुसासंति सीएण फरुसेण वा । मम लाभोति पेहाए, पयओ तं पडिस्सुणे । अमुसासणमोवायं, दुक्कडस्स य चोयणं । हियं तं मण्णए पण्णो, वेस, होइ असाहूणं । भावनाइत्ति, साहू कल्लाण मन्त्र । पावदिट्ठी उ अप्पाणं, सासं दासं व मन्नई । लज्जा- दया-संजम बंभचेरं कल्लाणभागिता विसोहिठाणं । जे मे गुरु सययमणुसासयंति, ते हं गुरू समयं पूययामि । खड्डया मे चवेडर मे, अक्कोसा य वहा य के । कल्लाणमणुसासंतो, पावदिट्टि त्ति मां । अर्थात्- "तत्त्वदर्शी गुरु मुझे कोमल या कठोर वचन से जो शिक्षा (सजा) दे रहे हैं, वह मेरे लिए लाभ के लिए ही है, यह सोचकर विनीत शिष्य उस गुरुशिक्षा को प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करे। " १ उत्तरा० १।२७ २ उत्तरा० १ । २८ ३ उत्तरा० १ । ३६

Loading...

Page Navigation
1 ... 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415