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आनन्द प्रवचन : भाग ६
लिए मना करने लगी। सत्यप्रिय सिपाही ने कहा- "मुझे घूमकर पहरा देने का ही आदेश है, इसलिए एक जगह खड़ा नहीं रह गकता।" इस पर क्रुद्ध होकर मेम ने लाई को जगाया और सारी बात कही। लार्ड ने फिर नौकर को सिपाही के पास भेजा तो उसने वही पहले वाला जवाब दिया। अन्त मैलार्ड ने स्वयं आकर सिपाही से पूछा"तुम्हारा नाम क्या है ?"
'मेरा नाम छोगसिंह है, साहब !" "कहां का है ?" "राजस्थान का हूँ।' "क्या तुम राजपूत हो?" "जी हां।" "नम्बर कितना है ?" 'एक सौ पिचहत्तर !'
"अच्छा तुम एक जगह ही खड़े रहो, तुम्हारे घूमने से मेम साहथ की नींद उड़ जाती है।"
"साहब ! मैं खड़ा नहीं रह सकता। मुझे अपने ऑफिसर का यही आदेश है।" अदब से उसने कहा।
"मैं तुमसे कहता हूं। जानते हो, मैं कौन हूं ? लार्ड, हिन्दुस्तान का लाई...।" वायसराय ने कहा।
"आप सच फरमाते हैं, लेकिन यह बात आप मेरे ऑफिसर से कहें। हमें तो उनका आदेश मानना पड़ता है। वे जैसा अंदेश देंगे, वैसा मैं कर लँगा।" छोगसिंह ने निर्भीकता से कहा।
"क्या मेरा कहना भी नहीं मानोगे ?" वायसराय ने गुस्से में कहा। "मैं मजबूर हूं, साहब !" सिपाही ने कहा।
वॉयसराय आगबबूला होकर अन्दर चले गये। उन्होंने मेम से दूसरे कमरे में जाकर सो जाने को कहा। सत्य पर दृढ़ उस सिपाही के मन में कोई भय या खेद नहीं था। बल्कि उसे सत्यनिष्ठ होकर अपने कर्तव्य पर डटे रहने का हर्ष था।
इधर वॉयसराय के चिन्तन ने नया मोड़ लिया। रह-रहकर सिपाही की निर्भीकता एवं निष्ठापूर्वक आदेश पालन आँखों के सामने घूमने लगा। दिन निकलने पर लार्ड ने पुलिस के कप्तान को बुलाकर उस सिपाही की सत्यनिष्ठा और वफादारी की बात कही। स्वयं जाकर उस सिपाही को पीठ थपथपाई और कहा-"शाबाश छोगसिंह ! तुम बहुत सच्चे आदमी हो। ऐसे सत्यनिष्ठ सिपाहियों की भर्ती अपनी पुलिस में अधिक से अधिक होनी चाहिए।' वायसाय ने उस सिपाही की सत्यता, साहस और नियम पालन से प्रभावित होकर उसकी पदोन्नति कर दी, उसे कप्तान बना दिया।
सचमुच सत्यनिष्ठ व्यक्ति किसी भी भय, स्वार्थ और प्रलोभन से अपनी