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अरुचि वात को परमार्थ-कथन : विलाप
एक कलहप्रिय व्यक्ति इन दोनों को लड़ा-भिड़ाकर तमाशा देखना चाहता था। अपने स्वभावानुसार वह पहले मुद्गशैल के पास आकर कहने लगा--"भाई मुद्गशैल! दुनिया के लोग बड़े ईर्ष्यालु हैं। वे किसी की महिमा सुन नहीं सकते। एक दिन की बात है, मैंने कतिपय व्यक्तियों के सामने ताहारी प्रसंसा की कि मुद्गशैल छोटा-सा पर्वत होते हुए भी बहुत सुदृढ़ है, बज्रदेही है। उस पर कितना ही पानी क्यों न पड़े, उसका कुछ भी नहीं बिगड़ता। बड़े-बड़े पहाड़ टूट-टूटकर गिर पड़ते हैं, लेकिन वह सदा अखण्ड रहता है।" मेरे द्वारा इस प्रकार की गई प्रशंसा पुस्करावर्त मेघ को सहन न हुई। उसके अहंकार पर चोट लगी। फलाः अपने मुँह मियां मिठू बनते हुए उसने कहा- "अरे ! उस मुद्गशैल की क्या औकात है, मेरे सामने टिकने की ? वह तुच्छ पहाड़ तो मेरी एक धारा को भी नहीं सह सकता। मैंने तो बड़े-बड़े पर्वतों को अपनी धारा से चकनाचूर कर दिया है। तुमने मेरा सामर्थ्य अभी देखा नहीं मालूम होता है।"
उसकी बात सुनते-सुनते मुद्गशैल आक्रोश से भर उठा। वह तमककर बोला—"देखो जी ! पुष्करावर्त मेरे सामने उपस्थित नहीं है। अतएव अधिक कुछ कहना व्यर्थ है। इतना अवश्य कहूँगा कि यक्षि पुष्करावर्त सात दिन तक लगातार पानी बरसाता रहे, सारी धरती जलमग्न कर दे कि यदि वह मेरा तिलतुष मात्र भी बिगाड़ दे तो मैं अपना नाम बदल दूंगा।"
___ कलहप्रिय व्यक्ति वहाँ से चलकर पुकरावर्त के पास आया। उसके सामने अपनी ओर से नमक-मिरच लगाकर मुद्गशैला के घमंड की बात कह डाली और उसका क्रोध भड़का दिया। पुष्करावर्त मेघ ने रोष में आकर सात दिन तक निरन्तर जलधारा प्रवाहित की। उसके बाद खुश होकर मन ही मन सोचने लगा-"अब तो उस घमंडी का नामोनिशान भी नहीं मिलेगा, वह तो गलतर टुकड़े-टुकड़े हो गया होगा।"
बर्षा बन्द हुई। सारा पानी बह गया। जमीन पुनः दिखलाई देने लगी। पुष्करावर्त मेघ उस कलहप्रिय व्यक्ति के पास गया और बोला--"बेचारे उस मुद्गशैल का तो पता लगा, उसकी क्या हालत हो गई होगी अब ?"
दोनों मुद्गशैल के पास पहुंचे। देखा तो आश्चर्यान्वित होकरर परस्पर कहने लगे—“अरे न तो इसका कोई हिस्सा टूटा है और न ही कुछ गला-सड़ा है। इस पर तो मेरी जलधारा का जरा भी प्रभाव परिलक्षित नहीं हो रहा है।
पुष्करावर्त मेघ का अहंकार चूर-चूर हो गया।
बन्धुओ ! इस संसार में अधिकतर श्रोता ऐसे होते हैं जिनकी आत्मा पर वक्ता के उपदेश, कथन या परामर्श का कोई भी असर नहीं होता। वे मुद्गशैल की तरह उनकी उपदेशवृष्टि से जरा भी नहीं भीगते । स्नके मन-मस्तिष्क में वक्ता की बात जरा भी स्पर्श नहीं करती। इसीलिए संत कबीर सीधे चोट करते हैं
कया होय तंह श्रोता सोवै, वक्ता मूढ़ पचाया रे। होय जाहँ कहिं स्वांग तमाशा, तनिक न नींद सताया रे।