Book Title: Anand Pravachana Part 9
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 364
________________ परमार्थ से अनभिज्ञ द्वारा कथन : विलाप ३५७ सकता हूं। यहां रहते-रहते मैं दवाइयों के नाम्। उनके गुण और उपयोग की विधि आदि जान गया हूँ, फिर यहां इतने कम वेतन में क्यों पड़ा रहूं ? क्यों न इसी तरह खूब पैसे कमाऊँ ?" अतः दूसरे दिन से उसने गधजी की नौकरी छोड़ दी। चौराहे पर एक कमरा लेकर उसमे कुछ दवाइयों की शीशियां लगा ली। बाहर एक बोर्ड लगा दिया—'यहां प्रत्येक रोग का इलाज होता है। जोगी आने लगे। दुनिया में रोगियों की कमी नहीं होती। वह नीम हकीम रोगियों को आपने अधूरे ज्ञान के आधार पर दवाइयां देता रहा, कभी किसी के दवा लग गई तो ठीक, न लगी तो उसके भाग्य। एक दिन एक बुढ़िया को लेकर उसके बेटे उस वैद्य के पास आये। बोले-"वैद्यजी ! देखिये तो इस बुढ़िया को क्या हो गया है ? इसके गले में सूजन हो गई है।' वैद्यजी को अपने गुरुजी द्वारा ऊँट का किया हुआ इलाज याद आया। उन्होंने दो चार पुस्तकें देखीं, बुढ़िया के लड़कों को श्विास दिलाने के लिए उसकी नब्ज, चेहरा वगैरह टटोले । फिर बोले - "बहुत शी ही इलाज कर दूंगा, बुढ़िया विल्कुल स्वस्थ हो जाएगी, पच्चीस रुपये लगेंगे।" बुढ़िया के पुत्रों ने स्वीकार किया। अनाड़ी वैद्य ने झट लकड़ी का हथौड़ा छठाया और बुढ़िया के गले के नीचे हाथ रखकर ऊपर से दे मारा। बुढ़िया ने तो एक ही हथौड़े में आंखें फेर ली और वहीं दम तोड़ दिया। बुढ़िया के पुत्र यह कहते ही रहे कि "यह क्या कर रहे हैं ? बुढ़िया को मार रहे हैं या इलाज कर रहे हैं।" पर उसने किसी की एक न सुनी और धुढ़िया के मर जाने पर उसके घर वालों ने वैद्य को बहुत भला-बुरा कहा तो उसने कहा- 'भरना जीना किसी के हाथ की बात नहीं है, मैंने अपने गुरुजी द्वारा बताई हुई चिकित्सा की है। एक ऊँट का गला सूज गया था, तब गुरुजी ने यही चिकिसा की थी?" भला क्या उस बुढ़िया के पुत्र अब इस नीम हकीम पर कभी श्रद्धा कर सकते थे? या इसकी फीस दे सकते ये? कदापि नहीं। वही हुआ, बुढ़िया मर गई । नीम हकीम की दुकान लोगों ने वहां से जबरन उठवा दी। उसे अपने शहर से भगा यिा। बेचारे की बड़ी दुर्गति हुई। कहने का मतलब है—अधूरी समझ के या अधकचरे पंडित स्वयं इस प्रकार का अंधानुकरण करके गर्वस्फीत होकर दूसरों का अर्थ कर डालते हैं। तत्त्वज्ञानी पढ़ने-सुनने मात्र से नहीं, प्रत्यक्ष तीव्र अनुभव से इसलिए अध्यात्म ज्ञान का उपदेश देने वाले प्रत्येक व्यक्ति को पढ़ने के साथ गुनना भी आवश्यक है। तैरने की कला केवल हस्तकें पढ़ने से नहीं आती, उसके लिए प्रत्यक्ष अनुभव करना पड़ता है। इसी प्रकार कालत, डाक्टरी, वैद्यक याअन्य कई विद्याएं बहुत लम्बे अभ्यास के वाद अनुभव से जाती हैं। इसी प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान भी केवल शास्त्रों को रटने से, विविध पुस्तकों के पढ़ने मात्र से या किसी का अन्धानुकरण करने से ही नहीं आता, उसके लिए भी प्रत्यक्ष अनुभव की आवश्यकता होती है।

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