Book Title: Anand Pravachana Part 9
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 357
________________ ३५० आनन्द प्रवचन भाग ६ साध्वियों को गलत रटते देख उसका अर्थ पूछा तो उन्होंने कहा - "इसका अर्थ गुरुणीजी बाद में बताएँगी।" तब यतियों ने उनसे कहा- "ऐसे नहीं, ऐसे रटो- 'दोय मुआ अज्जिया' । " भोली भाली साध्वियों ने यतियों के कथनानुसार वैसे ही रटना शुरू किया। कुछ देर बाद जब उनकी गुरुणीजी आई। उन्होंने अमंगलसूचक शब्द सुने तो चौंकी और उन्हें डांटडपटकर शुद्ध पाठ बताया। अर्थ फिर भी न समझाया । इसी प्रकार एक गाँव में साध्वियाँ पधात्र हुई थीं। एक अनपढ़ किन्तु श्रद्धालु बहन उनसे सामायिक के पाठों में 'लोगस्स' का पाठ सीख रही थी। यह साध्वीजी से पाठ लेकर घर जाकर रटती थी। साध्वीजी उसे अर्थ नहीं समझाकर यही कह देतीं कि यह चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति का पाठ है, इसे रट लो । " बेचारी अर्थ से अनभिज्ञ श्रद्धालु बन्न 'लोगस्स' के पाठ में आए हुए 'पहीण - जरमरणा' पाठ का अर्थ न समझने के कारण उसके बदले रटने लगी- 'पीहर जार मरणा'। कुछ ही देर बाद उसका पति आजा और उसने जब उसकी पत्नी को इस प्रकार पाठ रटते हुए सुना तो पूछा- "यह पाठ किसने बताया है तुम्हें ?" वह बोली - "गुरुणीजी ने मुझे यह पाठ रटने को दिया है। क्यों क्या हुआ ?" उसका पति मुस्कराते हुए बोला "कुछ अर्थ भी सम्मती हो या यों ही अंटसंट रटे जा रही हो ?" भोली पत्नी ने कहा – “मुझे तो इसका कुछ अर्थ नहीं समझाया, गुरुणी जी ने, केवल पाठ रटने को दिया है।" पति ने कहा---'भोली भामण ! पाठ भी तो तुम गलत रट रही हो, इस पाठ का अर्थ होता है— 'पीहर जाकर मरना' ऐसा अशुद्ध पाठ गुरुणीजी तो दे नहीं सकतीं। तुमने ही अपने मन से बना लिया है।" आखिर वह भोली बहन गुरुणीजी के पास पहुँची और उस पाठ को शुद्ध रूप से सीखा। एक जगह एक अनपढ़ लड़की को थोक्ष बहुत अक्षरज्ञान कराकर साध्वी बना दिया गया। उसकी गुरुणी एक दिन नमस्कार मंत्र को 'एसो पंच नमुक्कारो' पाठ देकर गोचरी चली गई। थोड़ी देर रटने के बाद उसने रटना बन्द कर दिया। जब गुरुणी को आते देखा तो जोर-जोर से रटने लगी "एसा पंचानो मुँ (ह) कारो (लो)" । गुरुणी ने सुना तो उसकी मूढ़ता साथ ही अपनी अज्ञता पर तरस खाने लगीं। ऐसी और भी कई घटनाएँ हैं, जो उपशिकवर्ग की अनभिज्ञता और इस ओर शुद्ध मार्गदर्शन की लापरवाही को सूचित करती हैं। ऐसी घटनाओं को आप प्रायः हँसकर टाल देते हैं, परन्तु आप लोगों को इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए, और ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे साधुममाज विवेकी, तत्वज्ञानी और शास्त्र के पाठों के रहस्यज्ञ बने, अन्यथा ऐसी घटनाओं को पुनरावृत्ति होती रहने से साधु समाज एवं जिनशासन की बदनामी और अवहेलना होक की आशंका है।

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