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हंस छोड़ चले शुष्क सरोवर २६५ लोभी को अन्धा बनाने के लिए ईर्ष्यालु काना हो गया। यह एकदम निकृष्ट कोटि की स्वार्थवृत्ति है, जिसमें अपने स्वार्थ का विघटन करके ही दूसरे स्वार्थ का विघटन है। इस जघन्यतम स्वार्थी मनोवृत्ति से समाज एकदम क्रूर, निर्दय एवं निष्ठुर बन जाता है।
योगिराज भर्तृहरि ने नीतिशतक में का चारों कोटि के व्यक्तियों का परिचय देते हुए कहा है--
एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान् परित्यज्य ये। सामान्यास्तु परार्यमुयमझाः स्वार्थाविरोधेन ये। तेऽमी मानुषराक्षसाः परतिं स्वाय नियन्ति ये।
ये तु ध्वन्ति निरर्वकं परहितं, ते के न जानीमहे । 'प्रथम कोटि के वे परमार्थी सत्पुरुष हैं, जो अपने स्वार्थों का परित्याग करके दूसरों का हित करने के लिए तत्पर रहते हैं, दूसरी कोटि के सामानय व्यक्ति हैं जो अपने स्वार्थ के साथ विरोध न हो, ऐसे पार्थ-साधन के लिए उद्यत रहते हैं। तीसरी कोटि के वे नरराक्षस हैं, जो अपने स्वार्थ 5 लिए दूसरे के हित को नष्ट कर देते हैं, और चोथी कोटि के वे अधम व्यक्ति हैं जो बिना ही प्रयोजन के व्यर्थ ही दूसरों के हित को नष्ट कर डालते हैं। पता नहीं, ये कौन ? इन्हें क्या नाम दें? यह समझ में नहीं आता।'
ऐसे लोगों का स्वार्थ तो सीमा लांघ जाता है। ऐसे लोग तो देवता और भगावन से भी स्वार्थ का सौदा कर बैठते हैं।
एक बार एक लोभी लाला मीठे खजूर खाने के लिए पेड़ पर जा चढ़ा। चढ़ते समय खजूर की मधुरता के आकर्षण के काण चढ़ गया, लेकिन उतरते समय भय से अधीर हो उठा कि कहीं गिर पड़ा तो चकनाचूर हो जाऊंगा। अतः लगा भगवान से प्रार्थना करने---"प्रभो ! मुझे सकुशल नीचे उतार दो। अगर मैं सकुशल नीचे उत्तर गया तो आपको पांच सौ रुपयो का प्रसाद चढ़ाऊँगा। इसी चिन्तन में डूबता-उतराता वह सावधानी से नीचे उतर गया। परन्तु अन्न उसकी नीयत बदल गई। स्वार्थ ने जोर मारा, भगावन को भी धोखा देने की सूझी---"प्रभो ! अब आप आपके और मैं मेरे । न तो मुझे खजूर पर चढ़ना है और न ही आप पर कुछ चढ़ाना है।" यह है निकृष्ट स्वार्थी मनोवृत्ति ! इसीलिए तो एक भुक्तभोगी अनुभवी कहता है
देखा सोच-विचार, दुनिया मतलब की, मतलब की...। ध्रुव । जब तक जिका काम है सरता, तब तक उसका दम है भरता। रहे सदा वो जी-जी करता, मतलब का व्यवहार । दुनिया...। निकला काम बदल गये साम, तोताचश्म हुए सब नाती। स्वारथ के हैं पोता-पोती, कान्ते शास्त्र पुकार । दुनिया...। यह दुनिया की झूठी यारी, बारव के सब बने पुजारी। विपद पड़े सर पर जब भारी, दूर रहे परिवार । दुनिया...।