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आनन्द प्रवचन भाग ६
एक बार वादशाह ने बीरबल से पूछा था- "मूर्ख से वास्ता पड़े तो क्या करना चाहिए ?" वीरबल ने तपाक से कहा- 'हजूर! मौन हो जाना चाहिए। "
विवाद को वही समाप्त करने का सबसे सुन्दर उपाय है। वचन की क्रिया से निवृत्ति |
मौन या वाणी की क्रिया से निवृत्ति का सर्वोत्तम लाभ यह है कि उससे सद्ज्ञान बढ़ेगा। भाषा का प्रयोग जितना अधिक होता है उतनी ही अन्तर्ज्ञान में रुकावट आती है। आपने अनुभव किया होगा कि बोलने से पहले मन चंचल होता है, उसके बाद भी चंचलता होती है, और बोलते समय भी चलता। यह सारी चंचलता मनुष्य के अन्तर्ज्ञान में बाधा उत्पन्न करती है। यही कारण है कि जिन्होंने अन्तर्ज्ञान की साधना की, वे सब साधक अधिक समय तक मौन रहे, कम से कम बोले। भगवान महावीर से जय वचनगुप्ति के परिणाम के बारे में पूछा गया तो उन्होंने फरमाया कि वचनगुप्ति से निर्विचारिता या निर्विकारता प्राप्त होती है। । निर्विचारता का अर्थ है— विचार की स्थिति का समाप्त होना और निर्विकारता का अर्थ है-भाषा से होने वाली विकृति - परिणति का समाप्त हो जाना।
वाणी की क्रिया से निवृत्ति (मौन) का दूसरा लाभ है— विवादमुक्ति। बोलने के कारण ही परिवारों में, समाज या राष्ट्र में विवाद उत्पन्न होता है। दो व्यक्ति झगड़ते हैं, तब वे दोनों ही बोलते जाते हैं, इससे लड़ाई की आग बुझती नहीं, बल्कि अधिक भड़कती है। दोनों में से एक नहीं बोलता, मैस हो जाता है, तो वह कलहाग्रि स्वयं शान्त हो जाती है।
वाणी की क्रिया से निवृत्ति से तीसरा लाभ है—अहंत्वमुक्ति बोलने से, सुंदर भाषण करने से मनुष्य में गर्व बढ़ता है, अहंकार जागता है कि मैं सुन्दर बोलता हूं, मेरी भाषण शक्ति अच्छी है। विविध भाषाओं का ज्ञान भी अयतना (अविवेक) हो तो अहंकार बढ़ाता है। यह तो आपका आए दिन का अनुभव होगा।
स्वामी रामतीर्थ जब अमेरिका से अपने मिशन में सफल होकर भारत लौटे तो सर्वप्रथम वे काशी पहुंचे। वहाँ काशी के लिंगज पण्डित भी उनके अनुभव और पण्डित उठा और उसने रामतीर्थ
संस्मरण सुनने आए। वहीं सभा में से एक असहिष्णु से पूछा - " आप संस्कृत जानते हैं ?" उन्होंने कहा "नहीं। " पण्डित बोला- "तो फिर आप ज्ञान की बात क्या करते हैं ? जो संस्कृत नहीं जानता, वह ब्रह्मज्ञान की बात क्या करेगा ?"
यह कितनी बिडम्बना है, भाषाज्ञान के साथ ब्रह्मज्ञान का गठजोड़ करने की अतः न बोलने से भाषाज्ञान सम्बन्धी अहं से मुक्ति मिल जाएगी।
यद्यपि सामान्य आदमी का काम बोले बिना नहीं चलता, बोले बिना उसका जीवन-व्यवहार ठप्प हो जाता है, अतः बोलना पड़ता है। लेकिन बोलने की क्रिया को जब आप प्राथमिकता दे देते हैं, तब वहाँ यतना नहीं रहती। बोलने को अनिवार्य मान