Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 10
________________ अलिंगग्रहण प्रवचन अरसमरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमसदं । जाण अलिंगग्गहंणं, जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥ १७२॥' अरस मरूवमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् । जानीह्यलिङ्गग्रहणं, जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ॥ १७२ ॥ चैतन्य गुणमय आतमा, अव्यक्त अरस अरूप है । जानो अलिंगग्रहण इसे, यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ॥ १७२ ॥ अन्वयार्थ :- [ जीवम् ] जीव को [ अरसम्] अरस, [ अरूपम् ] अरूप, [ अगंधम्] अगंध, [ अव्यक्तम् ] अव्यक्त, [ चेतनागुणम् ] चेतनागुणयुक्त, [ अशब्दम् ] अशब्द, [ अलिंगग्रहणम् ] अलिंगग्रहण (लिंग द्वारा ग्रहण न होने योग्य) और [ अनिर्दिष्टसंस्थानम् ] जिसको कोई संस्थान नहीं कहा गया है, ऐसा [ जानीहि ] जानो । आत्मनो हि रसरूपगन्धगुणाभावस्वभावत्वात्स्पर्शगुणव्यक्त्यभावस्वभावत्वात् शब्दपर्यायाभावस्वभावत्वात्तथा तन्मूलादलिङ्गग्राह्यत्वात्सर्वसंस्थानाभावस्वभावत्वाच्च पुद् गलद्रव्यविभागसाधन - मरसत्वमरूपत्वमगन्धत्वमव्यक्तत्वमशब्दत्वमलिङ्गग्राह्यत्वमसंस्थानत्वं सकलपुद्गलापुद्गलाजीवद्रव्यविभागसाधनं चास्ति । तु चेतनागुणत्वमस्ति । तदेव च तस्य स्वजीवद्रव्यमात्राश्रितत्वेन स्वलक्षणतां बिभ्राणं शेषद्रव्यान्तरविभागं साधयति । १. यह गाथा समयसार में ४९वीं, नियमसार में ४६वीं, पंचास्तिकाय संग्रह में १२७वीं, अष्टपाहुड-भावपाहुड में ६४वीं, धवला पुस्तक ३ में पहली, लघु द्रव्यसंग्रह में ५वीं इत्यादि अनेक ग्रंथों में उपलब्ध है । -

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