Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 66
________________ ५७ तेरहवाँ बोल अज्ञानी का प्राण संबंधी भ्रम ___अज्ञानी मानता है कि जबतक श्वास और आयु टिकती है, तबतक जीव जीवित रहता है, मन-वचन-काया हो तो टिकता है, पाँचों इन्द्रियाँ ठीक रहें तो जीव टिकता है, वाणी ठीक बोली जाती हो, तबतक जीव कहलाता है, मन निर्बल हो गया हो तो जीव से कम कार्य होता है; परन्तु यह सब भ्रम है; क्योंकि मन, वचन, काया तो सर्व जड़पदार्थ हैं, आत्मा उनसे जीवित नहीं रहता है। तथा अज्ञानी मानता है कि - पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख पुत्र चार पाया । तीजा सुख कुलवन्ती नार, चौथा सुख अन्न भण्डार ॥ इसप्रकार अज्ञानी शरीर, पुत्र, स्त्री तथा अनाज में सुख मानता है, यह महा भ्रम है। यहाँ तो पाँच इन्द्रियाँ आदि जड़पदार्थों को निकाल दिया है, उनसे जीव जीवित नहीं रहता है तो दस प्राण से प्रत्यक्ष पृथक् बाह्य पदार्थ पुत्र, स्त्री, अनाज आदि सुख के कारण कहाँ से हो सकते हैं ? वे सुख का कारण ही नहीं हैं । अज्ञानी पैसे को भी प्राण मानते हैं, यह सब स्थूल भ्रम है। दस प्राण तो अजीवतत्त्व हैं । अजीव तो जीव का ज्ञेय है; अत: जीव ऐसे दस अजीव प्राणों से नहीं जीवित रहता है। आत्मा चेतनाप्राण से जीवित रहता है। इसप्रकार आत्मा माता-पिता के शुक्र और रज का अनुसरण करके होने वाला नहीं है और उनके द्वारा उत्पन्न नहीं होता है। आत्मा दस प्राणवाला नहीं है, आदि सब कथन नास्ति से किया है तो आत्मा कौन है ? कैसा है ? आत्मा सदाकाल अपने चेतनाप्राण से जीवित रहता है और अपने परमबोध और आनन्द का अनुसरण करके रहनेवाला है। अनादिकाल से तेरी दृष्टि दस प्राण पर है और तू मानता है कि जीव इनसे जीवित रहा है – तेरी इस दृष्टि को छोड़ दे और 'तू चैतन्यप्राणस्वरूप है', ऐसी दृष्टि कर। इस तेरहवें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है - अ-नहीं, लिंग-इन्द्रिय, मन, ग्रहण-जीवत्व को धारण कर रखना अर्थात् आत्मा इन्द्रिय

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