Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 67
________________ ५८ अलिंगग्रहण प्रवचन और मन आदि लक्षण द्वारा जीवत्व को नहीं धारण करता है – ऐसा भाव समझकर स्वज्ञेय की यथार्थ श्रद्धा-ज्ञान करना धर्म का कारण है। चौदहवाँ बोल नलिंगस्य मेहनाकारस्य ग्रहणं यस्येति लौकिकसाधनमात्रत्वाभावस्य। अर्थ :- लिंग का अर्थात् मेहनाकार का (पुरुषादि की इन्द्रिय का आकार) ग्रहण जिसके नहीं है, सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार आत्मा लौकिकसाधनमात्र नहीं है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। आत्मा, जड़ इन्द्रियों के आकार को ग्रहण नहीं करता है, ऐसा स्वज्ञेय को तू जान। __ जो इस शरीर की इन्द्रियों का आकार दिखाई देता ह, जीव ने उसे ग्रहण नहीं किया है। जो पुरुष की इन्द्रिय की, स्त्री की इंद्रिय की, नपुंसक की इन्द्रिय की आकृतियाँ दिखाई देती हैं; वे तो सब पुद्गल की अवस्थाएँ हैं। उन आकृतियों का आत्मा में अभाव है और उस आकार में आत्मा का अभाव है। जिस वस्तु का जिसमें अभाव होता है, उस अभावरूप वस्तु का ग्रहण हो, ऐसा बन ही नहीं सकता। अतः आत्मा इन्द्रिय के आकार का ग्रहण नहीं करता है। अज्ञानी जीव आत्मा को लौकिक साधनमात्र मानता है। ___ अज्ञानी माता कहती है कि मैंने पुत्र को जन्म दिया, पुरुष कहता है कि मेरे कारण पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र के शरीर में पुत्र के आत्मा का भी अभाव है तो पुत्र के शरीर के आकार में माता-पिता निमित्त हों, ऐसा कैसे बने? तथा आत्मा में इन्द्रियों का अभाव है तो निमित्त होने का प्रश्न ही नहीं रहता है तो भी पुत्र का जन्म होने पर पिता विजयी हुआ और पुत्री का जन्म होने पर माता विजयी हुई, अज्ञानी भ्रम से ऐसा मानता है। आत्मा लौकिक साधनमात्र नहीं है। इन्द्रियों की समय-समय की पर्याय को आत्मा ने ग्रहण ही नहीं किया है। आदि में माता-पिता थे तो वंश चलता रहा, ऐसा मानना वह भ्रम है। पर की

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