Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 73
________________ ६४ अलिंगग्रहण प्रवचन अनंतकाल से एक सेकन्ड मात्र भी नहीं जाना है। आत्मा जैसा है वैसा नहीं मानकर उसकी विपरीत मान्यता की है। अत: हे जीव! आत्मा को अलिंगग्रहण जान। किसी भी इंद्रिय के द्वारा पर को जाने, ऐसा आत्मा नहीं है । इंद्रियों द्वारा मुझे ज्ञान होता है, ऐसी अनादि से मान्यता की है। ऐसी मान्यतारूप भ्रम वर्तमान अवस्था में है, इन्द्रियां भी हैं, ऐसा स्वीकार करने पर भी उक्त दशायें आत्मा नहीं हैं, ऐसा कहा है। तथा वह इन्द्रियों से ज्ञात हो ऐसा नहीं है, परन्तु अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभावी है, ऐसा कहा है। इन्द्रियों से ज्ञान होता है, ऐसा भ्रम है; परन्तु आत्मा यथार्थतया इन्द्रियों से स्व-पर को नहीं जानता। सब बोलों में व्यवहार का ज्ञान कराके उसका निषेध किया गया है। आत्मा, द्रव्य तथा भाववेद से रहित है। सोलहवाँ बोल फिर से कहा जाता है। आत्मा को लिंगों का अर्थात् स्त्री पुरुष वेदों का ग्रहण नहीं है, स्त्री-पुरुषों का आकार आत्मा में नहीं है। व्यवहार से शरीर स्त्री-पुरुष के आकाररूप संयोग होते हैं ; किन्तु वे आत्मा में नहीं हैं । स्त्री अथवा पुरुषवेद का भाव औपाधिकभाव है; परन्तु वह आत्मा का त्रिकाली स्वरूप नहीं है, वह एकसमय की अवस्था है; अतः ज्ञाता-दृष्टा शुद्धस्वभाव को छोड़कर आत्मा को इस जितना मानना वह पर्यायबुद्धि है; भ्रम है, अज्ञान है। पुरुषादि के आकार को आत्मा मानना, वह जड़ को जीव मानने जैसा है और भाववेद को आत्मा मानना वह पापतत्त्व को जीवतत्त्व मानने जैसा है। अजीव को जीव मानना तथा पाप को जीव मानना, अधर्म है; परन्तु शरीर तथा भाववेद से रहित आत्मा शुद्धचिदानन्दस्वरूप है, ऐसी श्रद्धा-ज्ञान करना, धर्म है, जीवनकला है।सुखी जीवन कैसे जीना, उसकी यह कुंजी है। सत्रहवाँ बोल न लिंगानां धर्मध्वजानां ग्रहणं यस्येति बहिरङ्गयतिलिंगाभावस्य। अर्थ : लिंगों का अर्थात् धर्मचिह्नों का ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा के बहिरंग यतिलिंगों का अभाव है'; इस अर्थ की प्राप्ति होती है।

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