Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 76
________________ अठारहवाँ बोल ६७ १. आत्मा मन, वाणी, देह का स्पर्श नहीं करता है; क्योंकि वे तो जड़ हैं, उनका आत्मा में अभाव है। जो वस्तु पृथक् हो, उसे किसप्रकार स्पर्श करे? पृथक् को स्पर्श करे तो आत्मा और शरीर एक हो जाय, परन्तु ऐसा कभी नहीं बनता है। २. आत्मा जड़कर्म – ज्ञानावरण आदि को स्पर्श नहीं करता है; क्योंकि वे सब रूपी हैं, उनका अरूपी आत्मा में अभाव है । अज्ञानी का आत्मा भी कभी भी कर्म को स्पर्श ही नहीं करता है; क्योंकि आत्मा और कर्म में अत्यन्त अभाव वर्तता है। में ३. अपने ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव से च्युत होकर अपनी एक समय की पर्याय पुण्य-पाप के विकारी भाव होते हैं, त्रिकाली स्वभाव ने उनको कभी स्पर्श ही नहीं किया है । सम्पूर्ण वस्तु यदि विकार को स्पर्श करे तो त्रिकालीस्वभाव विकारमय हो जाये और ऐसा होने से विकाररहित होने का अवसर कभी भी प्राप्त नहीं हो । ४. आत्मा में ज्ञानादि अनंत गुण हैं। ज्ञानगुण, दर्शनगुण आदि गुणभेद आत्मा में होने पर भी अनंत गुणों का एक पिंडरूप आत्मा गुणभेद का स्पर्श नहीं करता है। ‘मैं ज्ञान का धारक हूँ और ज्ञान मेरा गुण है' ऐसे गुण - गुणी के भेद को अभेद आत्मा स्वीकार नहीं करता है । अभेद आत्मा भेद का स्पर्श करे तो वह भेदरूप हो जाये, भेदरूप होने पर अभेद होने का प्रसंग कभी भी प्राप्त नहीं हो और अभेद माने बिना कभी भी धर्म नहीं होता है। देखो! यह सम्यग्यदर्शन का विषय कैसा होता है, उसका कथन चलता है । सम्यग्दर्शन का विषय आत्मा अभेद एकरूप कैसा है उसे यथार्थ नहीं जाने तो इस ज्ञान बिना बालतप और बालव्रत कार्यकारी नहीं होते हैं। त्रिलोकनाथ तीर्थंकर देवाधिदेव ने अपने केवलज्ञान में वस्तु का स्वरूप जैसा देखा है, वैसा ही उनकी वाणी द्वारा प्रगट हुआ और उसी के अनुसार श्री कुन्दकुन्दाचार्य भगवान ने वस्तुस्वरूप को जानकर, अनुभव कर इस महान गाथा की रचना की है। उसे मानने से सम्यग्दर्शन होता है। लोग बाह्य में 'यह करूँ, वह करूँ,

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