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बारहवाँ बोल
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नहीं है । इसी न्याय से आत्मा ज्ञाता - दृष्टा शुद्धस्वभावी है। उसमें शांति, सुख और आनन्द है । अज्ञानी जीव इन्द्रिय सन्मुख होकर परपदार्थ को तो नहीं भोगता है; परन्तु 'परन्तु परपदार्थ को मैं भोगू', ऐसा भोक्ता का विकारी भाव आत्मा नहीं कहलाता है; क्योंकि वह आत्मा का त्रिकाली स्वरूप नहीं है । परसन्मुख दृष्टि छोड़कर, स्वसन्मुख दृष्टि करके अपने अतीन्द्रिय आनंद-ज्ञान आदि को भोगता है, वह्नी आत्मा है । सम्यग्दृष्टि को अल्प हास्य, रति के भाव होने पर भी उस ओर की दृष्टि नहीं है । परन्तु स्वभाव सन्मुख रहते हुए अपने ज्ञानसुखादि के भाव को भोगने की ही दृष्टि मुख्यरूप से होती है। अतः वह विकारी भाव का भोक्ता नहीं होता है; ऐसे आत्मा की श्रद्धा करना धर्म है।
चैतन्य शांत अमृतरस की मिठाई छोड़कर पुण्य का भोग भिखारी की भांति जूठन खाने के समान है।
शब्द तो पुद्गल की अवस्था है, उसमें इष्ट-अनिष्टपना नहीं है। स्पर्श, रस, गंधयुक्त रूपी पदार्थों में अनुकूलता - प्रतिकूलता ही नहीं है । अज्ञानी जीव भोजन-पान के पदार्थों को इष्ट-अनिष्ट मानकर उनको भोगने का भाव करता है; परन्तु वह उसकी भ्रांति है। परवस्तु को भोगने का भाव आत्मा का स्वरूप नहीं है। लौकिक में भी जो गृहस्थ होता है, वह अपने घर में उत्तम - उत्तम वस्तुएँ खाता है; परन्तु जो जीव चूरा अथवा जूठन खाता है उसे भिखारी कहा जाता है; उसीप्रकार आत्मा का भण्डार ज्ञान, आनन्द, सुख आदि चैतन्य शक्तियों से अक्षय परिपूर्ण है, संयोग और पुण्य-पाप की रुचि छोड़कर स्वभाव की दृष्टि करके, जो जीव अपनी चैतन्य निधि के भण्डार को खोलता है, उसे उसमें से स्वभाव की निर्मल पर्यायरूप ताजी मिठाइयाँ समय-समय पर मिलती हैं और वह उनको भोगता है । वह धर्मात्मा जीव चैतन्य - लक्ष्मी का स्वामी धनवान कहलाता है; परन्तु जो जीव अपने स्वरूप का भोग छोड़कर, शरीर को भोगूँ, भोजनपान के विकारीभाव को भोगूँ, दया- दानादि परिणाम को भोगने की इच्छा करता है, परलक्ष करता है, वह जीव तीव्र आकुलता भोगता है । वह ताजी मिठाईयाँ छोड़कर भिखारी की भाँति जूठन खाने के समान है।