Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 24
________________ दूसरा बोल तीसरा प्रवचन ज्ञानस्वभाव में ज्ञात आत्मरूप ज्ञेयपदार्थ कैसा है ? माघ कृष्णा ४, रविवार, दि. २५/२/१९५१ आत्मा ज्ञेय है और यह ज्ञान द्वारा ज्ञात होने योग्य पदार्थ है। लिंग द्वारा यह ज्ञात नहीं होता। बोल १ : आत्मा इंद्रियों से जाने ऐसा यह ज्ञेय पदार्थ नहीं है। आत्मा को इन्द्रियों से ज्ञान नहीं होता, इस ज्ञेयपदार्थ (आत्मा) का ऐसा स्वभाव है। इस ज्ञेयतत्त्व अधिकार में अलिंगग्रहण कहने का कारण यह है कि आत्मा ज्ञान-दर्शन आदि अनंत गुणों तथा पर्यायों का पिंड है। यह ज्ञेय पदार्थ इंद्रियों से कार्य करे, ऐसा उसका स्वभाव नहीं है । इन्द्रिय के अवलम्बन बिना स्वयं से ज्ञान करे, ऐसा उस ज्ञेय का स्वभाव है। ज्ञेय जिसप्रकार हैं उसप्रकार ज्ञेय का स्वभाव जाने और स्वसन्मुख होकर श्रद्धा करे तो धर्म हो। विरुद्ध जाने तो धर्म कहाँ से हो? नहीं हो। अतः आत्मा इन्द्रियों द्वारा ज्ञान करे, ऐसा यह ज्ञेयपदार्थ नहीं है। बोल २ : आत्मा इन्द्रियों से ज्ञात हो, ऐसा यह ज्ञेयपदार्थ नहीं है। ___ आत्मा इन्द्रियों द्वारा ज्ञात हो, ऐसा यह ज्ञेयपदार्थ नहीं है, अंतर्मुख देखने से ज्ञात हो ऐसा है । यह ज्ञेय अधिकार है, अन्य रीति से कथन करें तो सम्यग्दर्शन अधिकार है। इन्द्रियों से ज्ञात हो, वह, आत्मा नहीं है। सम्यग्दर्शन का विषय आत्मा है, अतः इन्द्रियों द्वारा सम्यग्दर्शन नहीं होता अर्थात् धर्म नहीं होता। आत्मवस्तु ज्ञेय है। ज्ञेय कहो कि प्रमेय कहो - दोनों एक ही हैं। जगत में जितने स्व-पर प्रमेय हैं वे किसी न किसी ज्ञान का विषय अवश्य होते हैं; क्योंकि उनमें प्रमेयत्व नाम का गुण है। आत्मा इन्द्रियों द्वारा ज्ञान करे, ऐसा उसका स्वभाव नहीं है, इन्द्रिय द्वारा ज्ञानं करे तो वह प्रमाण नहीं रहता। प्रमेय को ज्ञान में ज्ञात होने योग्य कहा है; परन्तु इन्द्रियों से ज्ञात होने योग्य नहीं कहा।

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