Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 57
________________ अलिंगग्रहण प्रवचन ४८ स्व-स्वरूप के गीत ही भगवान की स्तुति है । चन्द्र में जो हिरण का आकार दिखाई देता है, उस पर से पद्मनंदि आचार्य भगवान् अलंकार करके भगवान का गुणगान करते हैं कि हे भगवान! हे नाथ! चन्द्रलोक में तेरे गुणगान देवियाँ सितार से गा रही हैं, वह इतना सुन्दर और भक्तियुक्त है कि उसे सुनने के लिये हिरण भी चंद्रलोक में जाता है । देवियाँ, अप्सराएँ, देव सब तेरा गुणगान करते हैं और मध्यलोक में से हिरण वहाँ गया तो हम निर्ग्रन्थ मुनि इस स्वरूप का गाना गाते हैं, जो कि तेरा ही गान है; क्योंकि तेरे स्वरूप में और हमारे स्वरूप में निश्चय से कोई अंतर नहीं है । उपयोग कैसा है ? यहाँ शुद्धोपयोग का कथन चलता है। शुद्धोपयोग में विकार ही नहीं है। पर का लक्ष रखकर जो उपयोग बढ़ता है और पर में रुक कर जो उपयोग नष्ट होता है, उसे यहाँ उपयोग ही नहीं कहा है। दया, दान, काम, क्रोधभाव आत्मा नहीं हैं, 'अनात्मा हैं, अधर्मभाव हैं, वे धर्मभाव नहीं हैं। उस अशुद्धोपयोग को उपयोग ही नहीं कहा है। अज्ञानी मानता है कि मलिनता मेरे उपयोग में है - वह तो भ्रान्ति है । जिसप्रकार द्रव्य शुद्ध है, गुण शुद्ध है, उसीप्रकार ज्ञान की पर्याय भी शुद्ध है, ऐसा कहा है। अपना ज्ञाता दृष्टा स्वभाव शुद्ध है, उसमें जो पर्याय एकाकार होती है, उस पर्याय को ही उपयोग कहा है और शुद्धोपयोगस्वभावी आत्मा कोही आत्मा कहा है। ज्ञानी को वर्तमान में राग निर्बलता के कारण है। उस राग संबंधी उपयोग को भी यहाँ उपयोग में नहीं गिना है। शुद्ध स्वभाव सन्मुख रहने से शुद्धता होती है, उस शुद्धता को ही उपयोग कहा है। इस दसवें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है - अ = नहीं, लिंग = उपयोग, ग्रहण=मलिनता । अर्थात् जिसमें मलिनता नहीं है, ऐसा उपयोग जिसका लक्षण है, ऐसा शुद्ध उपयोगस्वभावी तेरा आत्मा है; ऐसा तेरे स्वज्ञेय को तू जान ।

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