Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 52
________________ ४३ आठवाँ बोल गुरु के समागम में पढ़े तो ज्ञान बढ़ता है तथा कुन्दकुन्दाचार्य भगवान भी कहते हैं कि गुरु की कृपा से हमको यह ज्ञानवैभव प्राप्त हुआ है। ये सब कथन व्यवहार के हैं। अपने कारण से शुद्धस्वभाव में से ज्ञान की वृद्धि करता है तब गुरु, शास्त्र आदि को निमित्त कहकर उपचार करते हैं, वह मात्र बाह्य निमित्त है। यथार्थ में तो वह सब ज्ञान अंतर में से प्रगट होता है। प्रश्न : ज्ञान अंतर से प्रगट होता है तो यह मंदिर, प्रतिमाजी, समयसार आदि का अवलंबन किसप्रकार है? उत्तर : भाई, ये सब वस्तुएं आत्मा के कारण नहीं आती हैं और आत्मा को उनका अवलंबन नहीं है। जीव को शुभराग होता है, तब उन पदार्थों पर लक्ष जाता है। स्वयं ज्ञान की वृद्धि करता है, तब उन पदार्थों को निमित्त कहा जाता है। उपयोग का स्वरूप जिसप्रकार जो आत्मा इन्द्रियों से जानने का कार्य करता है, उसे आत्मा नहीं कहते है; उसीप्रकार जो आत्मा अपने को पुण्यवान-पापवान मानता है, उसे आत्मा नहीं कहते हैं; उसीप्रकार जो उपयोग अपने ज्ञाता-दृष्टा शुद्धस्वभाव का अवलंबन छोड़कर, पर का अर्थात् देव-शास्त्र-गुरु आदि बाह्य निमित्तों का, वाणी अथवा शुभराग का अवलंबन लेता है, उसे यहाँ उपयोग ही नहीं कहा है। जो आत्मा इन्द्रियों का लक्ष छोड़कर अतीन्द्रियस्वभाव का लक्ष करता है तथा जो स्वयं को पुण्य-पाप रहित शुद्ध जानता है, वही आत्मा है। उसीप्रकार देव, शास्त्र, गुरु, वाणी तथा शुभराग तथा अनंत परपदार्थों का अवलंबन छोड़कर अपने ज्ञानस्वभाव में जो उपयोग एकाग्र होता है, उसे ही उपयोग कहा जाता है। इस आठवें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है -अ-नहीं, लिंग-उपयोग, ग्रहण बाहर से लाना अर्थात् ज्ञान उपयोग की वृद्धि कहीं बाहर से नहीं होती है, ऐसा तू उपयोगरूप ज्ञेय का स्वभाव जान । अतः आत्मा कहीं बाहर से ज्ञान नहीं लाता है; ऐसा तेरे स्वज्ञेय को तू जान। .

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